गुरुवार, जुलाई 22, 2010

प्रेतनी का मायाजाल 8



उसकी आधी कहानी तो प्रसून की समझ में आ रही थी, पर आधी को लेकर वह भी उलझन में था ।
भूतिया किस्सों में चित्र विचित्र घटनाओं का होना कोई मायने नहीं रखता ।
पर एक सामान्य आदमी के लिये वह एक अदभुत तिलिस्म से कम नहीं होता ।
बल्कि वास्तव में वह एक तिलिस्म ही होता है ।
एक मायाजाल !
और ये भी एक मायाजाल ही था ।
एक प्रेतनी का मायाजाल !
- फ़िर । प्रसून ने उत्सुकता से पूछा - उसके बाद तुमने क्या किया, जब तुम्हें यह पता चला कि बीबी के नाम पर तुम्हारे साथ रह रही औरत कुसुम नहीं, बल्कि एक प्रेत है?
- फ़िर मैं क्या करता । वह अजीब से भाव से बोला - मैं तो अभी ये ही तय नहीं कर पाया था कि वो कौन है, और उसका रहस्य क्या है । कुसुम कहाँ चली गयी? ये कहना भी बेबकूफ़ी थी, क्योंकि थी तो वो कुसुम के शरीर में ही ।
आखिर वो प्रेतनी कौन थी, क्या चाहती थी, प्रसून जी, ये अनेकों प्रश्न मेरे सामने थे, पर इन सबका जबाब कौन देता, और कहाँ से लाता मैं इनका जबाब ।
पर नहीं, शायद ये बात गलत है ।
हर प्रश्न का उत्तर है, और हर समस्या का समाधान है ।
वो अगर दर्द देता है, तो दवा भी देता है ।
वो अगर मुसीबत भेजता है, तो हल भी भेजता है ।
और फ़िर एक दिन दवा’ आयी ।
कुसुम के प्रेत होने के दो प्रमाण मिल जाने के बाद एक दिन सुबह दस बजे दयाराम अपने बन्द स्कूल के सामने बरगद के पेङ के नीचे कुर्सी डालकर बैठा था ।
अब हर समय उसके दिमाग में यही द्वंद चलता रहता था कि इस नयी स्थिति में क्या किया जाय, और क्या न किया जाय ।
वह अपनी इस प्रेतक समस्या को लेकर तीन अलग अलग तान्त्रिकों से भी कुसुम से छिपकर मिल चुका था । उन्होंने कुछ गंडा ताबीज भी बनाकर दिये थे, और कुछ आम मांत्रिक उपाय भी बताये थे, कि कुसुम के ऊपर सोते में यह भभूत छिडक देना, या  प्रसाद के बहाने पेङे में उसको यह विशेष लौंग’ खिला देना, या यहाँ अगरबत्ती लगाना, या वहाँ ये धागा बांधना आदि आदि, पर इन उपायों से कैसा भी कोई लाभ नहीं हुआ ।
तब चिंतित दयाराम अपने नौकर रूपलाल के बताये अनुसार हनुमान जी की विशेष पूजा करने लगा । लेकिन इससे वह अपनी मानसिक स्थिति में कुछ शांति सी तो महसूस करता, पर कुसुम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ ।
तब मानो एक दिन भगवान ने उसकी सुनी ।



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