सोमवार, अगस्त 22, 2011

अंगिया वेताल 5



जैसे ही घङी ने रात के ग्यारह बजाये ।
रूपा एक झटके से बिस्तर से उठकर खङी हो गयी ।
अभी वह पहले के दिनों की तरह चुपचाप पंजामाली जाने के लिये निकलने ही वाली थी कि उसे अपने पीछे वही चिर परिचित स्पर्श का अहसास हुआ, और इसके साथ ही उसके शरीर में खुशी की लहर सी दौङ गयी ।
स्पर्श वहीं आ चुका था, और हमेशा की तरह उसके पीछे सटा हुआ था ।
- र रू पा । वह उसके दिमाग में बोला - तुम्हारी याद मुझे फ़िर से खींच लायी ।
- अ आज मैं भी । वह थरथराती आवाज में बोली - बैचेन हूँ, कमीने भगत ने आज मेरे सामने ही भाभी..
- मैं जानता हूँ । स्पर्श उसी तरह धीरे धीरे बोला - और खास इसीलिये आया हूँ । वह आधा भगत मुझे मसान समझता है, और सोचता है कि वह मुझे काबू में कर लेगा । पर उसके लिये ऐसा करना संभव नहीं है । उल्टे मैं उसे तिगनी का नाच नचाने वाला हूँ । बस तुम गौर से मेरी बात सुनो, क्योंकि रूप मैं तुम्हें बहुत चाहता हूँ ।
रूपा ध्यान से उसकी बात सुनने लगी ।
ज्यों ज्यों स्पर्श उसको बात बताता जा रहा था । उसके चेहरे पर अनोखी चमक बढ़ती जा रही थी । एक नये रोमांच का पूर्व काल्पनिक अनुभव करते हुये उसकी आँखे नशे से बन्द होने लगी ।
- स्पर्श । वह फ़िर मदहोश होकर बोली - मैं प्यासी हूँ ।
- हाँ रूप । स्पर्श लरजते स्वर में बोला ।
फ़िर वह बिस्तर पर गिरती चली गयी, और कुछ ही क्षणों में उसके कपङे तिरस्कृत से अलग पङे हुये थे ।
- हा..  अचानक रूपा मानो सोते से जागी । यह सब क्या हो रहा है, उसके साथ ।

वह मानो गहन अँधकार में गिरती ही चली जा रही हो ।
चारों तरफ़ गहरा अँधकार, और वह बिना किसी आधार के नीचे गिरती ही चली जा रही थी ।
कहीं कोई नहीं था, बस अँधेरा ही अँधेरा ।
फ़िर वह अँधेरे की एक लम्बी सुरंग में स्वतः गिरती चली गयी ।
पता नहीं कब तक, गिरती रही, गिरती रही, और अन्त में उस सुरंग का मुँह योनि के समान दरवाजे में खुला । तुरन्त दो पहलवान जैसे लोगों ने उसे अपने पीछे आने का इशारा किया । वह मन्त्रमुग्ध सी उनके पीछे चलती गयी ।
एक अंधेरे से घिरी पीली सी बगिया में वे दोनों उसे छोङकर गायब हो गये ।
वह ठगी सी खङी रह गयी । बगिया के पेङ बँधे हुये प्रेतों की तरह शाँत से खङे मानो उसी को देख रहे थे । कहीं कोई नहीं था ।
रूपा को ऐसा लगा, मानो प्रलय के बाद धरती पर विनाश हो गया हो, और समस्त धरती जनजीवन से रहित हो गयी हो, फ़िर वह कैसे जीवित बच गयी । बहुत दूर आबादी जैसे कुछ मकान नजर आ रहे थे । बहुत कोशिश करने पर उसे अपना घर हल्का सा याद आता था, और तुरन्त ही भूल जाता था । उसे अन्दर से लग रहा था, वह डरना चाह रही थी, पर डर नहीं पा रही थी । उसे कभी कभी दिल में रोने जैसी हूक भी उठ रही थी, पर वह रो भी नहीं पा रही थी ।
उसकी समस्त इच्छायें भावनायें एक अदृश्य जादुई नियंत्रण में थी । जिससे वह बाहर निकलना चाहती थी, पर निकल नहीं पा रही थी । फ़िर अचानक रूपा को कुछ इच्छा हुयी, और वह खिंचती हुयी सी बस्ती की तरफ़ चलने लगी ।

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