रविवार, दिसंबर 18, 2011

महातांत्रिक और मृत्युदीप



इस जीव सृष्टि में प्रत्येक जीवन अनेकानेक जटिल और रहस्यमय तन्तुओं के ताने बाने से बुना होता है । ये इतना अधिक रहस्यमय होता है कि इस जीवन को धारण करने वाला जीव स्वयं ही खुद को और खुद के साथ निरन्तर होने वाले क्या, क्यों, कैसे, कब को कभी नहीं जान पाता ।
आमतौर पर मनुष्य एक (बेहद सीमित) मोटी और मर्यादित तरीके से लिखी गयी पटकथा के पात्र के समान जिन्दगी के इस रंगमंच पर अपनी भूमिका का निर्वाह करता है और समय पूरा होने पर फ़िर से नये जीवन, नयी यात्रा पर निकल जाता है ।
लेकिन भवसागर की इस अथाह, असीम, अपार भीङ में कुछ गिने चुने लोग ऐसे भी होते हैं । जो इस तय मर्यादा में बंधना पसन्द नहीं करते और क्या, क्यों, कैसे, कब को उधेङना शुरू कर देते हैं और तब वे धीरे धीरे अपनी लगन और काबलियत के अनुसार रहस्य की परतों को भेदने लगते हैं ।
आदिसृष्टि से ही विद्वजनों की खोज के आधार पर यह सिद्ध हुआ है कि सृष्टि न सिर्फ़ विलक्षण है बल्कि यहाँ का हर प्राणी एक दूसरे का पूरक है और निश्चय ही एक दूसरे से सम्बद्ध है । क्योंकि, दरअसल यह विराट सृष्टि सिर्फ़ ‘एक सूत्रीय’ है । यानी छोटे से छोटा तुच्छ जीव और बङी से बङी महाशक्ति सिर्फ़ एक ही ‘चेतन-डोरी’ से बंधे हैं । न सिर्फ़ बंधे हैं बल्कि ‘एक ही नियन्ता’ से नियन्त्रित हैं ।
हमें यह अजीब सा लग सकता है, पर सृष्टि कानून के तहत अजीबोगरीब घटनायें और सतगुण में तमगुण का जबरन समावेश ही सृष्टि को चलाये रखने का आधार है ।
सरल भाषा में अपने अस्तित्व को बचाये रखना ।
अलौकिक दुनियाँ में विचरने वाले, तीन आसमानों की ऊँचाई तक के सफ़ल योगी प्रसून के जीवन की यौगिक घटनाओं, और स्वतः स्फ़ूर्त प्रकृतिजन्य अनुभवों को पाठकों ने हमेशा बेहद पसन्द किया, और उनकी अधिकाधिक मांग रही कि तन्त्र, मन्त्र तथा अलौकिक जगत की गतिविधियाँ उन्हें अधिकाधिक पढ़ने को मिलें । जो उन्हें जीवन के रहस्यों को समझने, सीखने, जानने का मौका देती हैं ।
प्रस्तुत उपन्यास ‘महातांत्रिक’ ऐसी ही जानकारियों से युक्त एक दिलचस्प कथानक है । जो आपको तन्त्र, मन्त्र और अन्य अलौकिक प्रसंगों की जानकारी देता है ।
यह उपन्यास आपको कैसा लगा, और आप किस तरह की जानकारी चाहते हैं ।
इस पर अपने निष्पक्ष विचारों से अवश्य अवगत करायें ।
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राजीव श्रेष्ठ
आगरा


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 2




- सीते‍ऽ ! काले पहाङ सा विशाल दैत्य रावण बोला - तूने इस लक्ष्मण रेखा के बाहर आकर बहुत बङी गलती की । अब तुझे इसके लिये सदा पछताना होगा ।
उस आन लगी रेखा से बाहर आते ही साधु से राक्षस में परिवर्तित हुआ रावण का ये प्रचण्ड रूप देखकर सीता घबरा गयी, और सूखे पत्ते की तरह थर-थर कांपने लगी ।
मंजरी का कलेजा धक से रह गया । उसके सीने में छुपा दिल धाङ धाङ कर बजने लगा । उसने पालिका ग्राउण्ड की चहारदीवारी पर बैठे पुष्कर की तरफ़ देखा ।
वह न जाने कब से उसे ही देख रहा था ।
जैसे ही उसकी नजरें उससे मिलीं । उसने एक गुप्त इशारा किया ।
वह सिटपिटाकर फ़िर से सामने देखने लगी ।
रामलीला स्टेज पर लटके दर्जनों बल्बों पर तमाम पतंगे मंडरा रहे थे, और इस आधुनिक शमा पर किसी प्राचीन परवाने की तरह से गर्म बल्ब से झुलस कर तत्काल मृत्यु को प्राप्त होते थे । इस निश्चित अंजाम को प्राप्त होते उन्हें नये परवाने देखते थे ।
फ़िर भी भयानक मौत की परवाह न करते हुये वे रोशनी के दीवाने एक एक कर सूली पर चढ़ते जाते थे ।
मंजरी के दिलोदिमाग में ऐसे ही अशान्त कर देने वाले विचारों का तूफ़ानी कोलाहल सा उठ रहा था । फ़िर रावण के संवाद ने तो मानों उसकी आत्मा को ही हिला दिया ।
उसे लगा कि जैसे ये बात रावण ने सीता से न कहकर खुद उससे कही हो । कहीं वह भी तो नहीं पतिवृता की लक्ष्मण रेखा लांघने जा रही थी ।
उसने अपनी नाजुक कलाई में बँधी बहुत छोटे आकार की डिजायनर घङी पर निगाह डाली ।
बारह बजने में बीस मिनट बाकी थे ।
चारों तरफ़ घुप्प अँधेरा फ़ैला हुआ था ।
बस नगरपालिका के इस ग्राउण्ड में जो रामलीला मंचन के समय रात को आबाद रहता था । बल्बों का प्रकाश फ़ैला हुआ था । यह प्रकाश भी बेहतर मंचन प्रदर्शन हेतु सिर्फ़ स्टेज पर ही अधिक था । बाकी दर्शकों वाला स्थान लगभग अँधेरे में था, और वहाँ बहुत मामूली प्रकाश ही था ।
सभी दर्शक हजारों साल पहले घटित राम कथा का नाटय मंचन, कई बार देखा होने के बाबजूद भी उसी उत्सुकता से देख रहे थे । मंजरी भी देख रही थी, और कुछ देर पहले तक उसके मन में कोई बात नहीं थी । पर अचानक ही उसके दिल में कोलाहल सा उठने लगा था ।
कितनी समानता थी, गर्म बल्ब से झुलसकर मरते इन पतंगों में, और रावण में ।
रावण भी देवी सीता की सुन्दरता का दीवाना था, और जान की कीमत पर उसे पाना चाहता था । जान की कीमत पर भी ।
जानकी जान की प्यासी है । लेकिन फ़िर भी उल्टा सीता को समझा रहा था ।
रामलीला का दृश्य आगे बढ़ चुका था ।
पर मंजरी के दिमाग में वही दृश्य अटका हुआ था ।
- सीते‍ऽऽ ! काले पहाङ सा विशाल दैत्य रावण उसके दिमाग में बोला - तूने इस लक्ष्मण रेखा के बाहर आकर बहुत बङी गलती की । अब तुझे इसके लिये बहुत पछताना होगा ।
मंजरी का दिल एकदम जोरों से उछला ।
उसका समूचा अस्तित्व निकलकर स्टेज की सीता में समा गया ।
अब उसके सामने ही रावण खङा था ।
- मंजरीऽऽ ! उसके दिमाग में रावण की आवाज गूँजी - तूने इस लक्ष्मण रेखा के बाहर आकर बहुत बङी गलती की । अब तुझे इसके लिये बहुत पछताना होगा ।
वह अचानक ही बिना बात के हङबङा गयी ।
उसकी निगाह फ़िर से चहारदीवारी पर गयी ।


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 3




वह मस्जिद की दीवाल के ठीक पीछे पहुँच गयी ।
और तब अचानक उसे ख्याल आया कि उसने यहाँ आकर भी गलती की, उसे सीधा घर जाना चाहिये था, और कल सल पुष्कर को बताना चाहिये था कि अब वह उससे कोई सम्बन्ध नहीं रख सकती । क्योंकि अब वह उसकी प्रेमिका नहीं, बल्कि किसी की विवाहिता है ।
अपनी यही सोच उसे उचित लगी, और वह घर जाने के लिये हुयी ।
तभी पीछे से किसी ने उसे बाँहों में भर लिया, और कस कर भींचने लगा ।
वह एकदम से हङबङा गयी, और उसकी जबान मानों सिल ही गयी ।
पुष्कर में कामप्रवाह अनियन्त्रित होकर बह रहा था ।
वह मंजरी के स्तनों को सहलाने लगा, और बेहद उतावले पन का परिचय दे रहा था ।
एक अजीब सी मुर्दानी बदबू भी उसे अपने इर्द गिर्द महसूस हो रही थी ।
पर सब कुछ अचानक सा था, और स्थिति एकदम उसकी सोच के विपरीत हो गयी ।
वह सोच रही थी, पुष्कर से बात करते हुये रूखा बरताव करके उसके अरमानों पर तुषारपात कर देगी । पर उस दीवाने ने तो उसे कोई मौका ही नहीं दिया, और कुछ ही क्षणों में उसके वस्त्र खोल दिये ।
नैतिक बोध जागते ही वह थोङा कसमासाई भी, और बोली - छोङो मुझे, क्या कर रहे हो ये सब ।
- चुप रहो । वह अजीब से ठण्डे स्वर में बोला - मुझे रोको मत, ऐसे मौके बार बार नहीं आते ।
वह कमजोर पङ गयी ।
वह सच ही तो कह रहा था । फ़िर भी वह तर्क देना चाहती थी । पर प्रेमी उसे मौका ही नहीं दे रहा था, और बे-सबरा सा उसके अंग प्रत्यंग को सहलाये जा रहा था । नैतिक बोध उसे रोक रहा था, और शरीर की भङकती भूख तङपते प्रेमी के आगे समर्पित सहयोग करती चली जा रही थी ।
इन दोनों के मध्य उसका अंतर्मन आगे पीछे जाते झूले की भांति झूल रहा था । इसलिये दोनों के मध्य दबंग पुरुष के समक्ष बेबस औरत का सा व्यवहार जारी था ।
काले अँधेरे में काली कामनायें ही खेल रही थी ।
वे एक दूसरे को देख नहीं पा रहे थे । बस महसूस ही कर रहे थे ।
और तब उसने पुष्कर को उसके उन्मादी लक्ष्य पर महसूस किया ।
उसे तेज गरमाहट सी स्पर्श करने लगी, और उसका विरोध क्षीण होने लगा ।
पुष्कर का चेहरा उसके पुष्ट उरोजों से सटा हुआ था ।
लेकिन उसकी हङबङाहट उसे बारबार असफ़ल कर रही थी ।
तब उसमें एक साथ कई मिश्रित भावनाओं का संचार हुआ ।
उसका प्रेमी, उसका मिलन का वादा, कभी साथ गुजारे उनके प्रेम के मधुर क्षण ।
और इन सबसे अधिक शक्तिशाली, दो तपते जवान जिस्मों का संगम ।
एक दूसरे में समा जाने को तत्पर ।
उसके सुन्दर चेहरे पर उस घोर अँधेरे में भी उसके अन्दर की प्रेमिका मुस्कराई, और सहयोग करते हुये उसने उस अनाङी घुङसवार की लगाम थामकर सही रास्ता दिखा दिया ।
समर्पित औरत के प्रेम का लरजता स्पर्श !
उसके नाजुक हाथ का साथ पाते ही उसमें अदम्य ऊर्जा भरती गयी ।
और वह कामना की गहराईयों में उतरता चला गया ।
उसका समस्त नैतिक अपराध बोध वासना की आँधी उङा ले गयी ।
और सब कुछ भूलकर वह अपने प्रेमी के साथ उस अरमानों की सुरंग में दौङने लगी ।
वह उछल कर उमंगों के घोङे पर सवार हो चुकी थी, घोङा बेलगाम दौङ रहा था ।
उन्मुक्त, उन्मादी, पागल, आवारा !
वह हाँफ़ने लगी, और कसकर पुष्कर के साथ चिपक गयी । उसने तेजी से उसे जकङ लिया, और उस घुङसवार की मजबूत टाप महसूस करने लगी ।
लेकिन हर दौङ की कोई न कोई मंजिल होती है ।
अश्वारोही ऊर्जाहीन हो चुका था ।
उसका संगठित हुआ काम-अस्तित्व पिघलने लगा था ।
तब वह लावे के समान फ़ैलने लगा ।
अनोखी तृप्ति के अहसास से मंजरी की आँखें बन्द हो गयीं ।


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 4




- देख मंजरी । उसके कानों में अपनी सहेली सोनी की आवाज सुनाई दी मोस्टली, ये दो हरेक की जिन्दगी में कभी न कभी आते ही हैं, एक प्रेमी, एक पति । कभी पति पहले आता है, तो कभी प्रेमी, पर आते निश्चित हैं । और ये दोनों, कभी एक ही इंसान में नहीं होते, हो ही नहीं सकते ।
- लेकिन सोनी । वह हैरानी से बोली - मैं तो प्रेम का अनुभव करना चाहती हूँ । कोई ऐसा जो मेरे दिल के तार तार छेङ दे । मेरे तन-मन को उमंगों से भर दे । मुझे आगोश में लेकर आसमां में उङ जाये । चाँद तारे तोङकर मेरा आँचल सजा दे ।
- धत तेरे की । सोनी ने माथे पर हाथ मारा - साली गधी । अरे कोई तुझे बाग बगीचे में घुमाने वाला भी मिल जाये । कोई तुझे सेब अंगूर खिलाने वाला ही मिल जाये, उसको ही तू बहुत समझ । आसमान में जायेगी, पागल नहीं तो । मैं कहीं कवि न बन जाऊँ, तेरे इश्क में ऐ कविता ।
विचार प्रवाह से उकताकर उसने करवट बदली और सोने की कोशिश करने लगी ।
उन्नीस को पार कर रही मंजरी गोस्वामी खूबसूरत देहयष्टि की मालकिन थी, और सोसायटी में डीजे गर्ल के नाम से मशहूर थी । वह एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती थी, और बङे परिवार के साथ साथ आर्थिक स्थिति से कमजोर थी ।
तब पंद्रह वर्ष की आयु से ही वह आर्केस्ट्रा पार्टी से जुङकर नाचने गाने लगी ।
पर शायद पहले उसे अपनी ही खूबियों का पता न था । उसकी आवाज में वीणा की झंकार थी, तो देह में हिरनी सी लचक । उसके नृत्य में मोरनी की थिरक थी, तो अदाओं में बिजली की चमक । किसी को वह स्टेज पर उङती मैंना सी नजर आती थी, तो किसी को पंख फ़ङफ़ङाती हुयी बुलबुल ।
इन सब खूबियों के चलते उसका भाव बढने लगा, और जल्द ही वह सबसे महंगी आर्केस्ट्रा कलाकार बन गयी । धनाढ़य व्यक्ति किसी भी कीमत पर उसे अंकशायिनी बनाने के ख्वाब सजाने लगे । अप्रत्यक्ष उसके पास ऊँची कीमत के प्रस्ताव आने लगे ।
पर मंजरी भी खास स्वभाव वाली थी । देह को बेचने से उसे सख्त नफ़रत थी । उसकी सीमा सिर्फ़ गायन नृत्य प्रदर्शन तक ही तय थी । इससे पहले कि ये सीमा टूटती, उसकी शादी मध्यप्रदेश में हो गयी, और सब कुछ पीछे छोङकर वह ढेरों अरमान लिये पिया के घर आ गयी ।
विचारों में खोयी हुयी मंजरी अचानक हङबङा गयी ।
उसने सीने पर तेज कम्पन महसूस किया ।
वह एकदम व्यर्थ ही डर सी गयी थी ।
उसने वायब्रेट करते हुये ब्रा में दबे स्लिम सेलफ़ोन को निकालकर काल रिसीव की ।
- क्याऽ? वह चौंककर बोली - फ़िर..फ़िर.. ये क्या कह रहे हो तुम?
दूसरी तरफ़ से पुष्कर की बात सुनकर उसके होश उङ गये ।
वह काफ़ी हताश निराश दुखी सा था, और अपनी बात कहे चले जा रहा था ।
पर अब उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था ।
कुछ भी ।
वह तो मानों अज्ञात रहस्यमय भंवर में डूबती जा रही थी ।
वह कह रहा था - रात में जब वह हङबङी में मस्जिद के कोने से मुङा ही था । तभी उसे जमीन में गङे पत्थर की जबरदस्त ठोकर लगी, और वह मुँह के बल गिरा ।
उसका माथा फ़ट गया, और वह काफ़ी देर अचेत सा पङा रहा । बहुत खून बह गया । फिर किसी तरह वह घर पहुँचा, और अभी थोङा सुधार होते ही सीधा उसी को फ़ोन कर रहा है ।
बङी अजीब बात थी ।
उसे संवेदना प्रकट करनी चाहिये थी । पर उसके मुँह से बोल तक न निकल रहा था ।
उसके दिमाग में डरावनी सांय सांय गूँज रही थी ।
- हे भगवान । वह अचानक उछल ही पङी ।
उस समय की सम्मोहक कामवासना में उसका ध्यान ही नहीं गया ।
अब तक की दिमागी उथल पुथल ने उसे सोचने का मौका ही नहीं दिया ।
और तब उसके समस्त शरीर में एक भयानक झुरझुरी सी दौङ गयी ।
वह मुर्दा जैसी बदबू ।
उसके स्पर्श का लीचङ अहसास । उसके स्पर्श का अजनबीपन ।
और..और उसका स्वर भी ।
सब कुछ अलग था ।
वह सब पुष्कर का हरगिज नहीं था ।


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 5




- तारा देवी । एक दिन काली मन्दिर का वह साधु उसकी सास से बोला - ये तेरी बहू है ना ।
अपना जिक्र आते ही उसके कान चौकन्ने हो गये ।
वह अपनी सास के साथ मन्दिर आयी थी । उसकी सास मन्दिर में बंगाली साधु के पास बैठी थी, जो बंगाली बाबा के नाम से प्रसिद्ध था । और वह ओट में बरामदे के पास पीपल के नीचे खङी थी ।
- हाँ स्वामी जी । उसे सास की आवाज सुनाई दी - ये मेरी बहू है, मंजरी, अभी साल भर पहले विवाह हुआ है । पहली बार इसे यहाँ लायी हूँ । बङे अच्छे और पवित्र भावों वाली हैं ।
वह तेजी से ऐसे स्थान पर गयी । जहाँ से वह दोनों को छिपकर देख भी सके, और सुन भी सके । साधु जैसे किसी गहरी सोच में डूब गया । उसके माथे पर चिन्ता की लकीरें गहरा गयी ।
तारा हैरान थी ।
महात्मा उसकी नयी नवेली बहू को लेकर किस चिन्ता में डूबा हुआ था?
वह आश्चर्यचकित सी उसके बोलने का इंतजार कर रही थी ।
पर वह जैसे शून्य में चला गया था ।
- आखिर । तारा जब अपनी उत्सुकता न रोक सकी तो व्यग्रता से बोली - बात क्या है महाराजकुछ तो बतायें ।
- या देवी सर्वभूते । बंगाली साधु धीरे से बुदबुदाया - इसके परिवार की रक्षा कर ।
ये सुनते ही दोनों सास बहू के होश उङ गये ।
- क्या । तारा बौखलाकर बोली - ये क्या कह रहें आप ।
- सुनो देवी । साधु जैसे अपने में वापिस लौटा - अपने पुत्र और बहू को समझा देना कि अभी पति पत्नी व्यवहार न करें । तब मैं देवी की सहायता से इस बाधा का उपचार सोचता हूँ । तुम्हारी बहू पर पिशाच की छाया है ।
मंजरी को एकदम तेज चक्कर सा आया, और संभालते संभालते भी वह जमीन पर ढेर हो गयी ।
उत्तर मिल चुका था ।
मगर ये उत्तर बेहद भयानक साबित हुआ था ।
उसकी समस्त जिन्दगी में जहर घोल देने वाला उत्तर ।
वो मुर्दा जिस्म सी बदबू ।
मुर्दा स्पर्श का अहसास, और मुर्दे जैसा ही स्वर ।  
- चुप रहो । उसे जैसे फ़िर से सुनाई दिया - मुझे रोको मत, ऐसे मौके बार बार नहीं आते ।..चुप रहो, मुझे रोको मत, ऐसे मौके बार बार नहीं आते ।..चुप रहो, मुझे रोको मत, ऐसे मौके बार बार नहीं आते ।
उसके साथ सम्भोग करने वाला पिशाच था ।
नदी में बहायी गयी ताजा ताजा लाश का उपयोग करके उसने उसके साथ मनमानी की । और ये ख्याल आते ही उसे अब अपने समूचे अस्तित्व से घिन आने लगती थी ।
उसके साथ एक मुर्दा देह द्वारा कामवासना की पूर्ति ।
उसकी जिन्दगी नरक हो गयी ।


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 6



- बाबा । कुछ देर बाद अचानक वह होश में आते हुये बोली - वह जोगी महात्मा कहाँ रहते हैं । मैं उनके पास जाकर अपना आंचल फ़ैला दूँगी । दया की भीख माँगूगी । उनके चरणों में सिर रख दूँगी । अपनी बहू के जीवन का सुख माँगूगी । आप मुझे उनका पता दीजिये । वे मुझ अभागन पर अवश्य रहम करेंगे ।
बंगाली साधु के चेहरे पर घनी पीङा के भाव उभरे ।
वह इस मामूली ज्ञान वाली घरेलू औरत को क्या और कैसे समझाता ।
घोङा घास से कभी यारी नहीं कर सकता ।
अगर वह तामसिक स्वभाव का न होता, तो ऐसी वायु को पोषण ही क्यों देता ।
बूढा मरे या जवान, मुझे हत्या से काम, ही जिसका सिद्धांत होता है ।
उस निर्दयी से क्या दया की उम्मीद रखी जाय ।
फ़िर भी तारा की जिद देखकर उसने जोगी का स्थान उसको बता दिया ।
शायद उसका सोचना सही ही हो ।
शायद जोगी को दया आ ही जाय ।
शायद !
-------------------

पर शायद शब्द ही बङा अजीब है ।
इसमें हाँ और ना दोनों ही छिपी हैं ।
- हुँऽऽ । डरावना दिनकर जोगी एक उपेक्षित सी निगाह दोनों सास बहू पर डालता हुआ बोला - पर इस बात से मेरा क्या सम्बन्ध है देवी । भूत, प्रेत, पिशाच, डायन, चुङैल ये सब मेरे लिये काम करते हैं । मेरी प्रजा हैं, मेरे बालक हैं । तब मैं इनको पोषण देता हूँ, तो इसमें क्या गलत है । उन्हें पालना, उनकी सुरक्षा करना, मेरा फ़र्ज है । तेरी बहू मेरे किसी पिशाच का शिकार हो गयी, तो उससे भी मेरा क्या सम्बन्ध है ।
ये...कहते कहते वह रुका । उसने मंजरी पर फ़िर से निगाह डाली - जरूर किसी दूषित स्थान पर असमय गयी होगी । तब यह प्रेत आवेश के नियम में आ गयी । तेरी सीता से गलती हुयी, जो वह लक्ष्मण रेखा से बाहर आ गयी । उसने इसको शिकार बना लिया । सृष्टि के नियमानुसार देहरहित जीव वृतियाँ ऐसे ही पोषण पाती हैं । उनकी भूख ऐसे ही तृप्त होती है ।..हाँ मेरा कोई गण नियम के विरुद्ध तेरे घर में गया होता । तेरी बहू पर छाया देता, तो उस नीच को अभी तेरे सामने ही जला देता । पर अभी तू बता, मैं क्या करूँ, क्या करूँ मैं ।
मंजरी सहमी सहमी सी छिपी निगाहों से उसे ही देख रही थी ।
काले तांबई रंग सा चमकता, वह विशालकाय पहाङ जैसा था, और गोगा कपूर जैसी मुखाकृति का था । उस वीरान जंगल में उसकी उपस्थित आदमखोर शेर के समान थी ।
उसको देखकर अजीब सा भय होने लगता था ।
- महाराज । भयभीत हुयी तारा ने अपना आंचल फ़ैलाकर उसके पैरों में डाल दिया - मेरी बहू के मुख पर एक करुणा दृष्टि डालिये । इसके जीवन की अभी शुरूआत हुयी है । यह बहुत अच्छे स्वभाव की है । इससे जो भी गलती हुयी, उसके लिये मैं इसकी तरफ़ से क्षमा मांगती हूँ ।..पिशाच जो भी भोग मांगेगा, वह मैं उसको दूँगी । बाबा आज एक अभागन माँ, अपने पुत्र और पुत्रवधू के जीवन की आपसे भीख मांगती है, हाथ जोङकर मांगती हैं ।
जोगी विचलित सा हो गया ।
उसके खुरदरे सख्त चेहरे पर आङी तिरछी रेखायें बनने लगी ।
वह गहरी सोच में पङ गया ।
पिशाच को रोकने का आदेश देने से गणों में असन्तोष व्याप्त हो सकता था ।
वे उस पर जो विश्वास करते हुये सन्तुष्ट रहते हैं । उनमें अन्दर ही अन्दर बगावत फ़ैल सकती है । दूसरे उसके एकक्षत्र कामयाब राज्य का जो दबदबा कायम है । उसमें असफ़लता की एक कहानी जुङ जाने वाली थी ।
फ़िर तो प्रेतबाधा से पीङित हर कोई दीन दुखी रोता हुआ इधर ही आने वाला था - महाराज उसे बचाया, तो मुझे भी बचाओ ।


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महातांत्रिक और मृत्युदीप 7




- बाबाजी । तारा उसके विचार भंवर से उबरने से पहले ही बोली - साधु का जीवन ही दीन दुखियों पर उपकार के लिये होता है । अगर कोई गलती हुयी भी है, तो वो हम जैसे अज्ञानियों से होना स्वाभाविक है, और उसको क्षमा करना आपका बङप्पन ।
जोगी भी आखिर तान्त्रिक से पहले एक इंसान ही था ।
सामने दयायाचना लिये खङी नवविवाहिता लङकी ।
और उसके लिये दया की भीख मांगती वो अबला, उसको अन्दर तक झिंझोङ गयी ।
उसने गम्भीरता से भारी स्वर में हुँ’ कहते हुये सिर हिलाया ।
और बोला - ठीक है, अपनी बहू को लेकर जाओ देवी । अब पिशाच इसको छाया नहीं देगा ।
दोनों के चेहरे पर अप्रत्याशित खुशी की लहर दौङ गयी ।
तारा ने मंजरी को तेजी से संकेत किया ।
और वे दोनों उसके चरणों में झुक गयी - आशीर्वाद दें स्वामी जी ।
- अरे नहीं नहीं । कहता हुआ जोगी तेजी से पीछे हटा - ये क्या कर रही है तू । ठीक है, ठीक है ।
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इंसान का जीवन भी एक अजब पहेली है ।
इसका एक प्रश्न हल होता है, तो दूसरा पैदा हो जाता है ।
दूसरा हल होता है, तो तीसरा उत्पन्न हो जाता है ।
फ़िर कभी कभी एक साथ ही, कई प्रश्न पैदा हो जाते है ।
और कभी कभी तो ऐसा होता है कि पैदा हुये प्रश्नों का कोई हल ही नहीं होता ।
अपने एकमात्र पुत्र का मुँह देखकर जीती हुयी विधवा तारा की जिन्दगी भी ऐसे ही कठिन और अनसुलझे प्रश्नों से भरी हुयी थी ।
एक अबला औरत ।
और काले नाग से फ़ुंफ़कारते जहरीले प्रश्न ।
पागल कर देने वाले प्रश्न ।
क्या करे वह । कहाँ जाये, किसका सहारा तके ।
और फ़िर एक दिन...
- अरे हत्यारे साधु । वह तेजी से उसी जंगल में भागती हुयी चली गयी - ले अब मुझे भी मार डाल, तेरी छाती ठण्डी हो जाये । तूने मेरा घरौंदा तो उजाङ ही दिया । हाय..अब मैं जीकर क्या करूँगी । निर्दयी मार डाल मुझे भी, छोङ दे अपनी प्रेतों की सेना मुझ पर । अरे पिशाचों खून पी लो मेरा । अब मैं भी जीवित न रहूँगी ।
भयानक काली अंधेरी रात ।
समूचा जंगल सांय सांय कर रहा था ।
जिसमें घुसते हुये कोई जिगरवाला भी कांप जाये ।
तारा बेखौफ़ दौङी जा रही थी ।
वह प्रेतवासा में आ पहुँची थी, और उच्च स्वर में रोती चीखती जा रही थी ।
जोगी जलते अलाव के पास बैठा कच्ची मदिरा का सेवन कर रहा था ।
नशे की खुमारी उस पर चढ़ने लगी थी, और उसकी आँखें लाल सुर्ख हो चुकी थी ।
किसी शहंशाह की भांति बैठा हुआ वह कुछ दूर विचरते प्रेतों को देख रहा था कि अचानक दूर से आता नारी विलाप सुनकर चौंका, और झटके से खङा होता हुआ उसी तरफ़ आने लगा ।
लालटेन उसके हाथ में थी ।
फ़िर वह उसके पास आकर रुक गया ।
तारा अर्द्धविक्षिप्त सी छाती पीट पीटकर विलाप कर रही थी ।
वह हैरानी से उसे देखता रहा ।
पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया ।
- क्या हुआ । वह भौंचक्का सा बोला - क्या हुआ बेटी, तू इस तरह क्यों रो रही है?
- अरे हत्यारे! वह दहाङ कर बोली - ये पूछ..क्या नहीं हुआ । मैं बरबाद हो गयी, मेरा घर उजङ गया । मेरा इकलौता बेटा...मेरा बेटा..बहू..सब ..सब तेरे उस पिशाच की...। वो अब..और ये सब..तेरी वजह से हुआ ।
जोगी हक्का बक्का रह गया ।
वह क्या बोले जा रही थी ।
उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
वह पागल सी हो गयी थी, और कुछ भी सुनने समझने की स्थिति में नहीं थी ।


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मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।