रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 16



- कमाल की हैं, मनोज जी आपकी भाभी भी । नितिन हँसते हँसते मानों पागल हुआ जा रहा था - आय थिंक, किसी भाषाशास्त्री, किसी महाविद्वान ने भी स्वर रहस्य को इस कोण से कभी न जाना होगा । लेकिन अब मुझे उत्सुकता है, फ़िर क्या हुआ ?
आज रात ज्यादा हो गयी थी ।
आसमान बिलकुल साफ़ था, और रात का शीतल शान्त प्रकाश बङी सुखद अनुभूति का अहसास करा रहा था ।
काली छाया औरत बूढ़े पीपल के तने से टिक कर वैसे ही शान्त खङी थी ।
नितिन के स्त्री रहित बृह्मचर्य शरीर, मन मस्तिष्क में तेजी से स्त्री घुलती सी जा रही थी । एक दिलचस्प रोचक आकर्षक किताब की तरह । किताब, जिसे बहुत कम लोग ही सही पढ़ पाते हैं । किताब, जिसे बहुत कम लोग ही सही पढ़ना जानते हैं । बहुत कम ।
- लेकिन पढ़ना बहुत कठिन भी नहीं । पदमा अपना हाथ उसके शरीर पर घुमाती हुयी बोली - एक स्वस्थ दिमाग, स्वस्थ अंगों वाली, खूबसूरत औरत, खुली किताब जैसी ही होती है । एक नाजुक, और पन्ना पन्ना रंग बिरंगी अल्पना कल्पना से सजी, सुन्दर सजीली किताब । जिसके हर पेज पर उसके सौन्दर्य और जवानी की मादक कविता लिखी है । बस पढ़ना होगा, फ़िर पढ़ो ।
पर उसकी हालत बङी अजीब थी ।
वह इस नैसर्गिक संगीत का सा रे गा मा भी न जानता था ।
उसे तो बस ऐसा लग रहा था, जैसे एकदम अनाङी इंसान को उङते घोङे पर सवार करा दिया हो । लगाम कब खींचनी है, कहाँ खींचनी है, घोङा कहाँ मोङना है, कहाँ सीधा करना है, कहाँ उतारना है, कैसे चढ़ाना है । उसे कुछ भी पता न था, कुछ भी ।
अचानक वह बिस्तर पर चढ़ गयी, और आँखे बन्द कर ऐसी मुर्दा पङ गयी । जैसे थकन से बेदम हो गयी हो ।
वह हक्का बक्का सा इस तरह उसके पास खिंचता चला गया, जैसे घोङे की लगाम उसी के हाथ हो ।
- भूल जाओ..अपने आपको । वह जैसे बेहोशी में बुदबुदाई - भूल जाओ कि तुम क्या हो । भूल जाओ कि मैं क्या हूँ । जो होता है, होने दो, उसे रोकना मत ।
स्वयं ! वह हैरान था ।
वह कितनी ही देर से उसके सामने आवरण रहित थी । लेकिन फ़िर भी वह उसको ठीक से देख न सका था । वह उसके अधखुले वक्षों को स्पष्ट देखता था, तब उनकी एकदम साफ़ तस्वीर उसके दिमाग में बनती थी । वह उसके लहराते बालों को स्पष्ट देखता था, तब उसे घिरती घटायें साफ़ दिखाई देती थी । वह उसके होठों को स्पष्ट देखता था, तब एक मिठास उसके अन्दर स्वतः महसूस होती थी ।
जब वह उसको टुकङा टुकङा देखता था । तब वह पूर्णता के साथ नजर आती थी । और आज जब वह खुद ही खुल गयी थी, तब उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । कुछ भी तो नहीं ।
उसने फ़िर से भूतकाल के बिखरे शब्दों को जोङने की कोशिश की - तुम ध्यान दो, तो औरत के हर अंग से रस टपकता है । वह रस से भरी रसभरी होती है
पर कहाँ था कोई रस । जिनमें रस था, अब वो अंग ही न थे । बल्कि कोई अंग ही न था, अंगहीन ।
बस हवा में फ़ङफ़ङाते खुले पन्नों की किताब, और वहाँ बस वासना की हवा ही बह रही थी । प्रकृति में समाई, सुन्दर खिले नारी फ़ूल की मनमोहक खुशबू, जिसको वह मतवाले भंवरे के समान अपने अन्दर खींच रहा था ।
फ़िर कब वह उल्टी हुयी, कब वह सीधा हुआ । कब वह तिरछी हुयी, कब वह टेङा हुआ । कब वह उसको दबा डालता, कब वह कलाबाजियाँ सी पलटती । कब वह उसमें चला जाता । कब वह उसमें आ जाती ।
कब..कब, ये सब कब हुआ, कौन कह सकता है ? वहाँ इसको जानने वाला कोई था ही नहीं । थी तो बस वासना की गूँज ।
एक प्यास .. तृप्त ..अतृप्त । 


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।