बुधवार, जून 09, 2010

एक गरीब की खुशनुमा शाम

शाम का समय था । मौसम का रुख ।अब दोपहर की अपेक्षा ।खुशनमा हो चला था । हाथ में सब्जी का थैला लटकाये मैं । मैं यानी राजकिशोर पाराशर, प्राइवेट मामूली क्लर्क , गौतम बुद्ध इंटर कालेज , बन्नाखेङा । वही आने वाले कल परसों की चिंता लिये ।उसे आज से , सदा से ढो रहा था । गधा खच्चर की तरह । जिन्दगी को ढोने के बाबजूद..जिन्दगी ने मुझे ।कलेशों की भरपूर सौगात दी थी । घर पर बीबी की कांय कांय..बच्चों की अन अफ़ोर्डेवल डिमांडस..कालेज के स्टाफ़ की तनातनी..ऊपर वालों की टेङी निगाह..जिन्दगी । एक भयानक जंगल । नजर आने लगी..जिसमें मैं ।मुझे एक निरीह चूहा..खरगोश केसमान ।नन्ही जान वाला महसूस होता । और आसपास ।खतरनाक शेर चीते नजर आते । मुझे मेरी गरदन उमेठने को तैयार..दिखने में मेरे ही जैसे..पर अन्य कोई..गैरों की क्या कहूँ । वक्त की मार ने । मेरे लिये मेरी निजी बीबी को । ऐसा बना दिया था । उसके अनुसरणकर्ता ।मेरे निजी बच्चे । मुझे सङे चूहे की भांति देखते थे । जिसकी वजह । सिर्फ़ इतनी थी । कि इन सबकी निगाहों में मैं मूरख । और एकदम फ़ेल आदमी था । मेरे गाल ।जिन्दगी के इस पतझङ ने । चालीस में ही पिचका दिये थे । मेरी कमर । वक्त के तूफ़ानों से ।अस्सी के समान झुक गयी थी । इस फ़ेलियरटी ने शायद ..मुझे नामर्द और नपुंसक भी । बना दिया था । तभी मेरी अङतीस की बीबी । मुझ चालीस के को त्यागकर । पङोस के बाइस के । जीतप्रकाश को हमेशा उपलब्ध थी । ऐसा मैं नहीं । मेरी कालोनी के यादव जी कहते । गुप्ता जी कहते । शर्मा जी कहते । वर्माजी...बस अखवार में नहीं निकली थी । टी.वी. में नहीं आयी थी । बेकार खबर थी । क्योंकि सब पहले से ही जानते थे । ऐसा मैं बेकार आदमी था । हफ़्ते भर का राशन थैले में था । सब्जी बाला । कुछ खराब सब्जियां । फ़ेंकने के छाँटता था । ये फ़ार्मूला । मुझे एक पाव भाजी वाले ने । दया करके बता दिया था ।वो भी उसी में से ।सब्जी लाता था । सब्जी बाला अब ।मेरी औकात जान गया था । मैं दस रुपये में पाँच किलो । सब्जी ले आता था । आज भगवान मेहरबान था । " उस ढेर " में शायद सब्जी बाले की गलती से । अच्छे अच्छे बेंगन मिल गये थे । मैं बङा खुश था । कि बीबी के निहोरे करके । किसी तरह आज भरंवा बेंगन । बनबा ही लूँगा । लेकिन भरंवा बेंगन की खुशी । मेरी छोटी सी उम्मीद भर थी । हो सकता है । बीबी घर पर न हो ।
जीतप्रकाश के साथ । घूमने गयी हो । सिनेमा गयी हो । इसलिये भविष्य से अग्यात । मेरे अरमानों का दिया । विचारों के तूफ़ान में ।अपनी मद्धिम लौ के साथ । फ़ङफ़ङा रहा था । मैं वास्तव में था ही । मूरख आदमी । जो आने वाले कल के । ऊजल सपने देखने के बजाय ।अतीत के कज्जल कोठार में । घुसा रहता । मैं जिन्दगी की रेल को । आगे ले जाने के बजाय । पीछे दौङाता । पीछे । पीछे । रेल । रेल नहीं कार....।
मुँह आगे की तरफ़ । सोच पीछे की तरफ़ । चल रहा था भरी सङक पर । ख्याल था घर का । ख्याल था भरंवा बेंगन का । असावधान कौन था । मैं । मैं यानी राजकिशोर पाराशर, प्राइवेट मामूली क्लर्क , गौतम बुद्ध इंटर कालेज , बन्नाखेङा । उन कार वाले साहब की । कोई गलती नहीं थी । सरासर मेरी गलती थी । इस गरीब पब्लिक को । मजा है..कार वालों को पकङने का । कार के बोनट की टक्कर मेरे कमर पर लगी थी । हाथ के थैले का राशन । मेरी इज्जत की तरह सङक पर फ़ैला पङा था । मेरे अरमानों के गोल गोल बेंगनी बेंगन । सङक पर दूर दूर तक बिखर गये थे । बाजारों में भीङ फ़ैलाते ठलुआ लुक्कों ने । घर गृहस्थी से बेजार । कुछ फ़ालतू फ़ुक्कों ने । कार वाले साहब और मेम साहब को घेर लिया था । और फ़ालतू में चिल्ला रहे थे । अमीरी मुर्दाबाद । साहब विना मांगे ही । मुझे " एक टक्कर " के दो हजार दे रहे थे । मैंने अपना टटोला टटूली एक्सरा किया । कोई हड्डी नहीं टूटी । कोई चीज नहीं फ़ूटी । सिर्फ़ दस रुपये की । आयोडेक्स के बराबर । नुकसान था । फ़िर दो हजार किस बात के । जिन्दगी ने तो इतनी टक्करें मारी । कभी कोई हरजाना नहीं दिया । जमाने ने तो इतनी ठोकरें मारी । कभी हालचाल भी नहीं पूछा । आप जाईये । साहब । बस एक और ठोकर ही तो लगी है । पर मैं सही हूँ ।
पर भाई साहब । आपका नुकसान भी तो हुआ है । मेम ने सहानभूति की । मेरा नुकसान । मैं अपने नुकसान का हिसाब किताब । अगर । जिन्दगी से लूँ । तो टाटा बिरला बन जाऊँ । क्या नुकसान हुआ । सामान सङक पर फ़ैल गया । बटोर लूँगा । बेंगन । सब्जी । पहले ही कूङे के ढेर से लाया हूँ । कीच में गिर गये । धो लूँगा । पर एक टक्कर का सौदा । क्या लालच से करूँ । क्षति हुयी ही नहीं । फ़िर क्यों क्षतिपूर्ति लूँ । शायद अभी ..मैं इतना नहीं गिरा । मैं । मैं । मैं यानी राजकिशोर पाराशर, प्राइवेट मामूली क्लर्क , गौतम बुद्ध इंटर कालेज , बन्नाखेङा ।
साहब कार ले के चला गया । भारत की जनता " पागल है..पागल है..। कहकर चली गयी । मैंने फ़िर से सारा सामान । कुशलता से थैले में समेट लिया । थैली फ़टने से सङक पर फ़ैल गयी । कुछ चीनी । मैंने अरोरकर । फ़ूँक मारकर । साफ़कर वहीं खा ली । सब्जियाँ नल पर धो ली । और गरम फ़ुलकों । भरंवा बेगन । का ख्याली चटकारा लेते हुये घर पहुँच गया । बीबी वन चेतना केन्द्र गयी थी । बच्चों के जीतप्रकाश अंकल के साथ । बच्चे पङोसी के दुत्कारने के बाबजूद । बेशर्म बने उसका टी.वी. देख रहे थे । क्योंकि उनके घर टी.वी. नहीं था । उनके बाप की औकात टी.वी. की नहीं थी ।
हल्का हल्का । अन्धेरा छाने लगा था । कार की टक्कर । अब जमकर । कसक रही थी । थैला जमीन पर रखकर । मैं अपने ही दरबाजे पर बैठ गया । क्योंकि घर का ताला बन्द था । और । थैले में से एक बेंगन निकालकर । भरंवा बेंगन । का स्वाद याद करते हुये खाने लगा । मैं । मैं यानी राजकिशोर पाराशर, प्राइवेट मामूली क्लर्क , गौतम बुद्ध इंटर कालेज , बन्नाखेङा । समाप्त ।

4 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

badhiya sirji

Udan Tashtari ने कहा…

ओह!


बस यही है प्राइवेट मामूली क्लर्क की जिन्दगी, खुशियाँ, कशमकश!

अच्छा आलेख.

Vinashaay sharma ने कहा…

सही लिखा है,जब इस प्रकार की परिस्थितिया पैदा होतीं हैं,तो इन्सान इसी प्रकार अपने अरमान पूरे करता है ।

बेनामी ने कहा…

खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट
का सांध्यकालीन राग है,
स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का
प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
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हमारी फिल्म का संगीत
वेद नायेर ने दिया है.

.. वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.

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My web-site फिल्म

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।