शनिवार, अगस्त 21, 2010

पांच प्रेत



पूर्वकाल में संतप्तक नाम का एक ब्राह्मण था ।

जिसने तपस्या से अपने को पापरहित कर लिया था । संसार को असार मानते हुये वह मुनियों की भांति आचार करता हुआ वन में रहता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने तीर्थयात्रा को लक्ष्य बनाकर यात्रा की किन्तु संस्कारों के प्रभाव से वह मार्ग भूल गया ।

दोपहर हो गयी ।

स्नान की इच्छा से वह किसी सरोवर आदि की तलाश करने लगा । उसी समय उसे बेहद घना वन दिखाई दिया । जिसमें वृक्षों लताओं आदि की अधिकता से पक्षियों के लिये भी मार्ग नहीं था । वह वन हिंसक जीव जन्तु पशुओं और राक्षस और पिशाचों से भरा पङा था ।

ब्राह्मण उस घनघोर डरावने वन को देखकर भयभीत हो उठा ।

उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, अतः वह आगे चल पङा । वह कुछ ही कदम चला था कि सामने बरगद के वृक्ष में बंधा एक शव उसे लटकता हुआ दिखाई दिया । जिसे पांच भयानक प्रेत खा रहे थे । उन प्रेतों के शरीर में हड्डी नाङियां और चमढ़ा ही शेष था । उनका पेट पीठ में धंसा हुआ था । ताजे शव के मस्तिष्क का गूदा चाव से खाने वाले, और शव की हड्डियों की गांठ तोङने वाले, बङे बङे दांत वाले उन भयानक प्रेतों को देखकर घबरा कर ब्राह्मण रुक गया ।

प्रेत उसे देखकर दौङ पङे, और उन्होंने ब्राह्मण को पकङ लिया ।

और इसे मैं खाऊंगा, ऐसा कहते हुये वे उसे लेकर आकाश में चले गये । किन्तु बरगद पर लटके शव के शेष मांस को खाने की भी उनकी इच्छा थी । प्रेत लटके हुये शव के पास आये, और उधङे हुये से उस शव को पैरों में बांधकर फ़िर से आकाश में उङ गये ।

इस तरह वह भयभीत ब्राह्मण भगवान को याद करने लगा ।

उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान वहाँ गुप्त रूप से पहुँच गये, और प्रेतों द्वारा ब्राह्मण को आश्चर्य से ले जाते हुये देखते चुपचाप उनके पीछे चलने लगे । सुमेर पर्वत के पास पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण को मणिभद्र नाम का यक्ष मिला ।

भगवान ने इशारे से उसे बुलाया, और कहा कि तुम इन प्रेतों से युद्ध कर इन्हें मारकर शव को अपने अधिकार में कर लो ।

इसके बाद मणिभद्र ने प्रेतों को दुख पहुँचाने वाले भयंकर प्रेत का रूप धारण कर उनसे भयंकर युद्ध किया, और उन्हें परास्त कर शव छीन लिया ।

प्रेतों ने ब्राह्मण को पारियात्र पर्वत पर उतारा, और वापस मणिभद्र की और आये, किन्तु वह अदृश्य हो गया । तब हताश होकर वे वापस पर्वत पर पहुँचे, और ब्राह्मण को मारने लगे ।

ज्यों ही उन्होंने ब्राह्मण को मारा, तो भगवान के वहाँ होने से और ब्राह्मण के प्रभाव से तत्काल उनके पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी । तब उन प्रेतों ने ब्राह्मण की प्रदक्षिणा की, और क्षमा मांगी ।
ब्राह्मण को बेहद आश्चर्य हुआ ।

उसने कहा - आप लोग कौन हैं, और अचानक इस बदले व्यवहार का क्या कारण है?

प्रेतों ने कहा कि - हम सब प्रेत हैं, जो आपके दर्शन से निष्पाप हो गये । हमारे नाम पर्युषित, सूचीमुख, शीघ्रग, रोधक और लेखक हैं ।

ब्राह्मण ने कहा - तुम्हारे नाम बङे अजीब हैं, मुझे इसका रहस्य बताओ ।

तब पहले पर्युषित बोला - मैंने श्राद्ध के समय ब्राह्मण का न्यौता किया था, पर वो ब्राह्मण देर से पहुँचा । तब मैंने बिना श्राद्ध किये हुये ही भूख के कारण उस श्राद्ध हेतु बने भोजन को खा लिया, और देर से पहुँचे ब्राह्मण को पर्युषित (बासी) भोजन खिला दिया । इसी पाप से मुझे दुष्ट योनि की प्राप्ति हुयी, और पर्युषित भोजन देने के कारण मेरा यह नाम पङा ।

सूचीमुख बोला - किसी समय एक ब्राह्मणी अपने पांच वर्षीय एकलौते पुत्र के साथ तीर्थस्नान हेतु भद्रवट गयी । मैं उस समय क्षत्रिय था । मैंने राहजनी करते हुये उस लङके के सिर में घूंसा मारा । और दोनों के वस्त्र और खाने का सामान छीन लिया ।

प्यास से व्याकुल जब वह लङका माता से लेकर जल पीने लगा, तो मैंने उसका जलपात्र छीनकर वह थोङा सा ही शेष जल स्वयं सारा पी लिया । इस तरह डरे और प्यास से व्याकुल बालक की कुछ ही देर में मृत्यु हो गयी । उसकी माँ ने भी कुंएं में कूदकर जान दे दी । इस पाप से में प्रेत बना ।

पर्वत जैसा शरीर होने पर भी मेरा मुख सुई की नोक के समान है । यद्यपि मैं खाने योग्य पदार्थ प्राप्त कर लेता हूँ । पर इस सुई के छेद जैसे मुख से उसको खाने में असमर्थ हूँ । भूख से व्याकुल बालक का भोजन छीनकर मैंने उसका मुँह बन्द किया । इससे मेरा मुँह सुई के नोक जैसा हो गया । अतः मैं सूचीमुख के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

शीघ्रग बोला - मैं एक धनवान वैश्य था । अपने मित्र के साथ व्यापार करने दूसरे देश गया । मेरे मित्र के पास बहुत धन था । मेरे मन में उस धन के लिये लोभ आ गया । मेरा धन समाप्त हो चुका था । हम दोनों नाव से एक नदी को पार कर रहे थे । मेरा मित्र थककर सो गया । लालच से मेरी बुद्धि क्रूर हो उठी थी । अतः मैंने अपने मित्र को नदी में धकेल दिया । इस बात को कोई न जान सका, और मित्र के हीरे जवाहरात सोना आदि लेकर मैं अपने देश लौट आया ।

सारा सामान अपने घर में रखकर मैंने मित्र की पत्नी से जाकर कहा कि - मार्ग में डाकुओं ने मित्र को मारकर सब सामान छीन लिया । मैं भाग आया हूँ ।

तब उस दुखी स्त्री ने सबकी ममता त्याग कर अपने को अग्नि की भेंट कर दिया ।
मैं खुश होकर लौट आया, और दीर्घकाल तक उस धन का उपभोग किया ।
मित्र को नदी में फ़ेंककर शीघ्र घर लौट आने के कारण मुझे प्रेतयोनि मिली, और मेरा नाम शीघ्रग हुआ ।

रोधक बोला - मैं शूद्र जाति का था । राजा से मुझे उपहार में बङे बङे सौ गांव मिले थे । मेरे परिवार में वृद्ध माता पिता और एक छोटा सगा भाई था । लोभ से मैंने भाई को अलग कर दिया । जिससे वह भोजन वस्त्र की कमी से दुखी रहने लगा ।
उसे दुखी देखकर मेरे माता पिता मुझसे छिपाकर उसकी सहायता कर देते थे । जब मुझे यह बात पता चली, तो क्रोधित होकर मैंने माता पिता को जंजीरों से बांधकर एक सूने घर में डाल दिया । जहाँ कुछ दिन बाद वे जहर खाकर मर गये ।
माता पिता के मर जाने के बाद मेरा भाई भी भूख से व्याकुल इधर उधर भटकता हुआ मर गया । इस पाप से मुझे यह प्रेतयोनि मिली । अपने माता पिता को बन्दी बनाने के कारण मेरा नाम रोधक पङा ।

लेखक बोला - मैं उज्जैन का ब्राह्मण था, और मन्दिर में पुजारी था । उस मन्दिर में सोने की बनी और रत्न से जङी हुयी बहुत सी मूर्तियां थी । उन रत्नों को देखकर मेरे मन में पाप आ गया, और मैंने नुकीले लोहे से मूर्ति के नेत्रों से रत्न निकाल लिये ।

क्षतविक्षत और नेत्रहीन मूर्ति देख राजा क्रोध से तमतमा उठा, और उसने प्रतिज्ञा की कि जिसने भी यह चोरी की है, वह निश्चित ही मेरे द्वारा मारा जायेगा ।

यह सुनकर मैंने रात में चुपके से राजा के महल में जाकर तलवार से उसका सिर काट दिया । इसके बाद चुरायी गयी मणि और सोने के साथ मैं रात में ही दूसरे स्थान को चल दिया । जहाँ रास्ते में जंगल में बाघ द्वारा मारा गया । नुकीले लोहे से प्रतिमा को छेदने और काटने का कार्य करने के कारण मैं नरक भोगने के बाद लेखक नाम का प्रेत हुआ ।

ब्राह्मण ने कहा - ओह, अब मैं समझा, लेकिन मुझे तुम्हारे आचरण और आहार को लेकर जिज्ञासा है ।

तब प्रेतों ने उत्तर दिया - जिसके घर में श्राद्ध, तर्पण, भक्ति, पूजा नहीं होते, अशौच रहता है । हम उसके शरीर से मांस और रक्त बलात अपह्त कर उसे पीङित करते हैं । मांस खाना, रक्त पीना ही हमारा आचरण है ।
इसके अतिरिक्त हम निंदनीय वमन, विष्ठा, कीचङ, कफ़, मूत्र, आंसुओं के साथ निकलने वाला मल आदि आहार करते हैं । हम सब अज्ञानी, तामसी और मन्दबुद्धि हैं ।

इसी वार्तालाप के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया ।
ब्राह्मण और प्रेतों ने उन्हें प्रणाम किया ।
ब्राह्मण ने उनसे प्रेतों के उद्धार हेतु प्रार्थना की ।
श्रीकृष्ण ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये ब्राह्मण और प्रेतों का उद्धार करते हुये उसी समय उन्हें अपने लोक पहुँचा दिया ।

बुधवार, अगस्त 18, 2010

मन्त्र काम क्यों नहीं करता..? 1


कल 16 अगस्त 2010 को मुझे दो लोगों से बात करने का अनोखा अनुभव हुआ । इसमें पहली बात सेलफ़ोन द्वारा एक बहुत चालाक और रहस्यमय लडके से हुयी । जिसने सेलफ़ोन पर ही इंटरनेट के द्वारा मेरे लेखों को पढा होगा । लडका बातचीत और स्वर से किशोर और बेहद चालाक मालूम होता था । मेरे बहुत पूछने पर भी उसने अपने बारे में नहीं बताया । खैर ये लडका चुपचाप किसी प्रेत पूजा में लगा हुआ था । और अपने इष्ट को प्रेतराज कहता था । उसका कहना था कि उसे दर्शन क्यों नहीं रहे ? वह जल्दी से प्रेत को सिद्ध कर अपने कार्य पूरा करना चाहता था ? मैंने इसे बहुत समझाने की कोशिश की । कि तुम गलत मार्ग पर हो । और साधनाओं द्वारा ही कुछ हासिल करना चाहते हो । तो सात्विक और प्रभु भक्ति की साधना करो । जिससे हमेशा कल्याण ही होता है । और जिसमें फ़ायदा नहीं । तो कोई नुकसान तो हरगिज नहीं होता । और सबसे बडी बात ये है कि जब तक इंसान किसी साधना हेतु समझ के स्तर पर पूरी तरह से परिपक्व न हो जाय । उसे साधना नहीं करनी चाहिये । हां साधारण भक्ति एक साल का बालक भी करे तो वह अच्छा ही परिणाम देगी । मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की । पर वो नहीं माना । मैं जानता था । वो इतना आग्रह क्यों कर रहा है । वो एक ऐसे क्षेत्र में रहता था । जहां ओझा तान्त्रिक जैसे लोगों का गढ था । उसकी फ़ोन कनेक्टिविटी और बोलने का अन्दाज एक रहस्यमय वातावरण का अहसास दे रहे थे । पर वो मेरे पीछे इस लिये पडा हुआ था । कि मेरी प्रेत कहानियों में जिस तरह का विवरण है । वो उसे बेहद आकर्षित कर रहा था । प्रेतनी का मायाजाल 1 से प्रेतनी का मायाजाल 8 तक । लेकिन अभी वो ये नही जानता था कि इस स्तर की साधना करने में इंसान को क्या क्या त्याग करना पडता है ? और क्या क्या पापड बेलने पडते हैं ? खैर मैंने कहा । तामसिक साधनाओं में मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता । हां यदि तुम किसी प्रेत पीडा या अनोखे चक्रव्यूह में फ़ंसे हुये हो । तो तुम्हारी कोई मदद की जा सकती है । और तब जैसी कि अपेक्षा थी । उसने फ़ोन काट दिया ।
16 अगस्त 2010 का दिन ही शायद मेरे लिये अजीव था । शाम के समय मीनाक्षी निगम ( बदला हुआ नाम ) से मेरी मुलाकात हुयी । और मुझे मीनाक्षी को देखकर बेहद आश्चर्य हुआ । हालांकि तन्त्र मन्त्र के क्षेत्र में महिला का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी । हजारों उन्मुक्त महिलायें इस क्षेत्र में मेरे अनुभव में आयी हैं । लेकिन वे अधिकांश घर से अलग हो चुकी होती हैं । और योगिनी या बाई जैसा जीवन जी रही होती हैं । पर मीनाक्षी एक शिक्षित परिवार की और स्वयं भी शिक्षित महिला थी । मुझे आश्चर्य इस बात का था कि उसकी रुचि मारण । मोहन । वशीकरण । हंडिया । शवसाधना । मुठकरनी । जैसी घोर तामसिक और दूसरे को कष्ट और नुकसान पहुंचाने वाली साधनाओं में बडे तीव्र स्तर पर थी । मैंने उसके बारे में और जानने के लिये प्रत्यक्ष एकदम मना नहीं किया कि मैं आपकी कोई सहायता नहीं कर सकता । मीनाक्षी के कामुक हावभाव देखकर मुझे पूर्वोत्तर क्षेत्र के उन आठ नौ जोगियों की याद आ गयी । जो शहर के बाहर एक शमशान के पास रहते थे । और भूत आदि का इलाज । औरत के बच्चा न होने जैसी कुछ बातों का इलाज करते थे । रात को दस ग्यारह बजे तक भटकी हुयी । भृमित हुयी औरतें उनके पास पहुंचती थी । इन औरतों को माध्यम होकर ले जाने वाली वे औरतें होती थी । जो कामवासना के मामले में कुन्ठित होकर इनके जाल में फ़ंस गयी होती थी । जहां वे जोगी उनको परसाद के नाम पर पेडे आदि में नशीला दृव्य खिलाकर एक तरह से ग्रुप सेक्स करते थे । और फ़िर भारतीय समाज के लिये ग्रुप सेक्स प्रायः दुर्लभ होने के कारण उनको इस नये अनुभव का चसका पड जाता था । और इस तरह उन ढोंगी साधुओं के पास जाने वालों की एक चेन सी आटोमेटिक ही बन जाती थी । इसके बाद ये जोगी कुछ महिलाओं को गांजा चरस स्मैक जैसे नशीले पदार्थों की लत लगा देते थे । और फ़िर नशे और सेक्स का एक नया खेल शुरू हो जाता । मीनाक्षी को देखकर मुझे ये बात इसलिये याद आयी कि दरअसल मीनाक्षी वही सेक्स का पत्ता इशारों में फ़ेंक रही थी । यानी मैं उसका मार्गदर्शन करूं । और वह मुझे इसकी मनचाही कीमत दे ।
मैंने कहा । तुम्हारी परेशानी क्या है ? उसने कहा । मैं कई बार लाख की संख्या में मन्त्र जाप कर चुकी हूं । मैंने
यहां पर ....ये क्रिया की ? मैंने शमशान में ये .....साधना की । मैंने उस पर ये तन्त्र....चलाया । जो कुछ हद तक चला भी...आदि ? तो मेरी ये मेहनत सफ़ल क्यों नहीं होती ? मेरे मन्त्र सिद्ध क्यों नहीं होते ? मेरे मन्त्र एक्टिव क्यों नहीं होते ? मैं मीनाक्षी की और देखकर रहस्यमय अन्दाज में मुस्कराया । क्रमशः

मंगलवार, अगस्त 17, 2010

मन्त्र काम क्यों नहीं करता..? 2


फ़िर जैसा कि मुझसे अपेक्षित था । मैंने मीनाक्षी से कहा । आपको मेरे बारे में किसी ने गलत जानकारी दी
है । मैं साधारण स्तर का एक छोटा सा भक्त हूं । और तन्त्र मन्त्र आदि के सम्बन्ध में मुझे कोई जानकारी नहीं हैं । और आप जिस तरह का ग्यान पूछ रहीं हैं । उस तरह का तो मैं हरगिज नहीं जानता । हां यदि मुक्ति मोक्ष । आत्म ग्यान के सम्बन्ध में कोई रुचि रखती हों । तो मैं आपके सवालों का उत्तर दे सकता हूं । आप कुन्डलिनी के बारे में बात करना चाहें । तो उसमें भी बात हो सकती है । पर जिन विषयों का आप जिक्र कर रहीं हैं । उनके लिये वैरी सारी । तब उसने कहा कि मैं मन्त्र को सही तरह से एक्टिव करने का तरीका ही बता दूं । या सिखा दूं । और एक बार फ़िर उसने जबरदस्त काम अस्त्र चलाया । मैंने कहा । मैडम अगर में जानता होता । तो क्या पागल था । जो इस कीमत पर नहीं देता ? और अंत में मुझे पागल ही समझकर वो चली गयी । वास्तविक बात ये है । कि मन्त्र को एक्टिव करना । और उससे काम लेना लोग बहुत छोटी बात समझते हैं । आईये देखें । एक मन्त्र कैसे सिद्ध होता है । इस तरीके को मेरे द्वारा खोलने का एक ही कारण है कि मीनाक्षी जैसे तमाम लोग जो अपना समय और जिन्दगी न सिर्फ़ बरबाद करते हैं । बल्कि एक घिनौने चक्रव्यूह में फ़ंस जाते हैं । वो इससे कुछ सबक ले सकते हैं कि ये इतनी आसान जलेबी नहीं है । लेकिन जो तीसमारखां हैं । और जिन्होंने ठान ही लिया है । कि वे मन्त्र तन्त्र को सिद्ध करके ही मानेंगे । उनके परिणाम उनके तरीके । लगन । और अन्य चीजों पर निर्भर होते हैं । जिसके लिये वे खुद ही जिम्मेदार होते हैं । किसी भी मन्त्र आदि विशेष पूजा में साधक को सबसे पहले । ॐ नमः । आदि से परमात्मा का भावपूर्ण स्मरण करना होता है । अब यहीं पर मुश्किल ये है कि ये ॐ क्या है । उसका भाव क्या है । ये बडे बडे तुर्रम खां नहीं जानते । ये मेरा निजी अनुभव है । लिहाजा गाडी स्टार्ट होने से पहले ही घुर्र घुर्र कर के रह जाती है । इसके बाद । यं । रं । वं । लम आदि बीज मन्त्रों से शरीर की शुद्धि की जाती है । दुष्ट शक्तियां अनुष्ठान के मध्य बाधा न डालें इसलिये शरीर रक्षा कवच और स्थान को भी बहुत बार बांधना अनिवार्य होता है । इसके बाद एक अलग मन्त्र के द्वारा अपने साधक स्वरूप का विशेष ध्यान करना होता है । इसके बाद करन्यास और फ़िर देहन्यास करना होता है । फ़िर अलग अलग मन्त्र की आवश्यकताओं के अनुसार ह्रदय में योगपीठ पूजा आदि का विधान है । जिसमें कम से कम बीस तीस लाइनों के अलग अलग देवताओं के मन्त्र सही उच्चारण और भावपूर्ण ढंग से मन में बोलने होते हैं । इसके बाद कर्णिका के मध्य में किसी बडे मन्त्र जो स्थिति के अनुसार अलग अलग होता है । ह्रदयादिन्यास किया जाता है । इसमें भी कम से कम दस लाइन का मन्त्र होता है । इसके बाद विष्णु आदि देवता के वाहन और आयुध को नमस्कार करते हैं । और इन सबमें आठ दस लाइन के मन्त्र होते हैं । फ़िर बीज मन्त्रों से इन्द्र आदि दिक्पाल को नमस्कार करते हैं । ये भी आठ लाइन के मन्त्र हो गये । फ़िर इनके भी आयुधों को प्रणाम करने का नियम है । इसके बाद भगवान अनन्त । ब्रह्मदेव । वासुदेव । पुन्डरीकाक्ष । आदि को प्रणाम किया जाता है । जो एक लम्बी प्रक्रिया है । इसके बाद अग्नि आदि की स्थापना द्वारा हवन करके । तब मन्त्र पर कई प्रक्रियाओं से गुजरने के बाद आ पाते हैं । दूसरे इसमें नियम और शुद्धता आदि का बहुत ख्याल रखना पडता है । फ़िर इसमें किसी का आवाह्न । स्वास्तिक मण्डल । सर्वतोभद्र मण्डल जैसे तमाम ठठाकर्म होते है । कोण का ध्यान रखो । मुहूर्त का ध्यान रखो आदि ऐसी कई बातें हैं । जो आज के कलियुगी माहौल में मेरे हिसाब से तो हरेक के लिये सम्भव ही नहीं है । पहले अन्य युगों में ये चीजें गुरुकुल शिक्षा पद्धित में बचपन से सिखाई जाती थी । अतः किसी सिद्धि आदि के लिये वो साधक उन्हें फ़टाफ़ट करता जाता था । पहले संस्कृत भाषा आम प्रचलन में थी । और ज्यादातर मन्त्र संस्कृत में ही होते हैं । आजकल हम बचपन से अंग्रेजी सीखते हैं । त्याग प्रवृति की जगह उपभोक्तावाद संस्कृति में जी रहे हैं । ब्रह्मचर्य की जगह free sex में जी रहे है । भक्ति पूजा की जगह पेट पूजा नोट पूजा हमारी आदत है । संस्कृत में शब्द परस्पर हार में फ़ूलों की तरह गुथे होते है । जबकि आजकल बोली जाने वाली भाषायें अलग अलग शब्दों से वाक्य बनाती है । अब सबसे महत्वपूर्ण बात ये है । कि इतनी सब बाधाओं को कोई पार कर भी ले तो । द्वापर के मध्य से ही एक विशेष नियम के तहत चार शब्द हिन्दी और संस्कृत वर्णमाला से ( दोनों लगभग एक ही हैं ) और साथ ही हमारे गले के स्वर यन्त्र से गायब हो गये । जो स्फ़ोट या गूंज स्वर थे । जिनसे मन्त्र की गति होती थी । और वह अंतरिक्ष या अपने लक्ष्य पर जाकर एक्टिव होता था । जिन्होंने संस्कृत भाषा की प्राचीन पान्डुलिपियों को देखा होगा । उन्हें कुछ ऐसे शब्द जरूर निगाह में आये होंगे । जिनको बोलना असम्भव है । दूसरे संस्कृत भाषा हिंदी या अंग्रेजी की खडी बोली की तरह रूखे या लठ्ठमार अन्दाज में नहीं बोली जाती । बल्कि काव्यपाठ के से अन्दाज में लययुक्त बोलने का विधान है । खासतौर से मन्त्र उच्चारण के समय ? अभी भी हिंदी में यां उच्चारण जैसा एक शब्द है । जिसको बोला नहीं जा सकता । अंग्रेजी के एस s की तरह जो शब्द ध्वनि सूचक होता है । उसका भी उच्चारण सम्भव नहीं है । इसलिये कुछ ऐसे रहस्य है । जिनसे वैदिक मन्त्र काम नहीं करेंगे । कलियुग के लिये वास्तव में शंकर जी द्वारा रचित शाबर मन्त्र । गोरख जंजीरा । कर्ण पिशाचिनी साधना । पंचागुली साधना । जैसे छोटे मोटे काम चलाऊ और ज्वर आदि उपचार । विषेले कीडे आदि का उपचार । भूत प्रेत से रक्षा आदि के उपचार जैसे ही मन्त्र सिद्ध होने का विधान है । और इसी तरह की पैचाशिक साधनाओं को सिद्ध करके भगवान का नाम जोडकर । साधुओं के नाम पर कलंक कुछ पाखण्डी जनता को भृमित करते हैं । वास्तव में कलियुग में साधारण भक्ति और ढाई अक्षर के महामन्त्र की भक्ति का ही आदेश है । जिसके लिये तुलसीदास ने कहा है । कलियुग केवल नाम अधारा । सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा । क्या इसमें कोई सन्देह है ?

सोमवार, अगस्त 09, 2010

सृष्टि का रहस्य..1

एक लम्बे समय तक योग निद्रा में रहने के बाद । योग निद्रा से जागने पर भगवान की सृष्टि करने की इच्छा हुयी । भगवान में इच्छाशक्ति सदैव विधमान रहती है । उस समय उन्होंने इच्छाशक्ति से लौकिक स्वरूप धारण किया । और अपने उस रूप से प्रलय का फ़ैला हुआ अंधकार नष्ट किया । महाविष्णु के सभी अवतार पूर्ण कहे गये हैं । उनका पर स्वरूप भी पूर्ण है । और पूर्ण से ही पूर्ण उत्पन्न होता है । विष्णु का परत्व और
अपरत्व व्यक्ति मात्र से है । देश काल के सामर्थ्य से परत्व अपरत्व नहीं है । उस पूर्ण से ही पूर्ण का विस्तार होता है । और अन्त में उस रूप को ग्रहण करके पुनः पूर्ण ही शेष रहता है । प्रथ्वी के भार रक्षण आदि का
जो कार्य है । यह भगवान का लौकिक व्यवहार होता है । गुणमयी माया में ही भगवान अपनी शक्ति का आधान करते हैं । वे वीर्य स्वरूपी भगवान वासुदेव सब काल में सब देश में सर्वत्र विधमान होते हैं और तब ईश्वर कहलाते हैं । अपनी माया में प्रभु स्वयं वीर्य का आधान करते हैं । वीर्य स्वरूप भगवान वासुदेव हैं और सभी काल में सभी अर्थों से युक्त हैं । इनके अचिन्त्यवीर्य और चिन्त्यवीर्य के भेद से दो रूप हैं । जिनमें एक स्त्री रूप है । दूसरा पुरुष रूप है । दोनों स्वरूप ही वीर्यवान हैं । इनमें भेद नहीं मानना चाहिये । देवी लक्ष्मी कभी हरि से अलग नही हैं । वे सदा उनकी सेवा में रहती हैं । नारायण नाम से कहे जाने वाले हरि यधपि पूर्ण स्वतंत्र हैं । किन्तु वे लक्ष्मी के विना अकेले कैसे रह सकते हैं । पुरुष नामक उन विभु ने तीन गुणों की सृष्टि की है । भगवान ने प्रकृति के तीन गुणों की सृष्टि की । लक्ष्मी ने भी तीन रूप धारण किये । श्री । भू और दुर्गा । इनमें श्रीदेवी । सत अभिमानी । भू देवी रज अभिमानी । और दुर्गा तम अभिमानी हैं । फ़िर भी इन तीनों में अन्तर नहीं है । हरि ने तीन रूप धारण किये । जो ब्रह्मा विष्णु महेश के नाम से जाने गये । लोकों का पालन करने से सत गुण युक्त विष्णु कहलाये । सृष्टि हेतु रजोगुण से संयुक्त होने पर ब्रह्मा कहलाये । और संहार हेतु तम से संयुक्त शंकर कहलाये । भगवान जब सृष्टि कार्य हेतु उन्मुख हुये । तो उनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ । इसके फ़लस्वरूप तीन गुणो वाला महतत्व प्रकट होता है । उस से ब्रह्मा और वायु का प्राकटय होता है । यह महतत्व रज प्रधान है । इस सृष्टि को गुण वैषम्य सृष्टि जानना चाहिये । फ़िर इस विशिष्ट
महतत्व में लक्ष्मी के साथ स्वयं हरि प्रविष्ट हुये । उन्होंने महतत्व को क्षुब्ध किया । इस क्षोभ के फ़लस्वरूप
उससे ग्यान द्रव्य क्रियात्मक यानी अहम तत्व उत्पन्न हुआ । इस अहं तत्व से शेष गरुण और हर उत्पन्न हुये ।
फ़िर से हरि ने लक्ष्मी के साथ इस अहं तत्व को क्षुब्ध किया । यह अहं तत्व वैकारिक तामस और तैजस तीन प्रकार का है । इस अहम के नियामक रुद्र भी तीन प्रकार के हैं । वैकारिक रुद्र । तामस रुद्र और तैजस रुद्र ।
फ़िर से भगवान ने लक्ष्मी के सात तैजस अहं तत्व को क्षुब्ध किया । इससे वह दस प्रकार का हो गया । जो श्रोत्र । चक्षु । स्पर्श । रसना । और घ्राण तथा वाक । पाणि पाद पायु और उपस्थ इन कर्म इन्द्रियों तथा ग्यान इन्द्रियों के रूप में दस प्रकार का कहा जाता है । फ़िर वैकारिक अहं तत्व को हरि ने क्षुब्ध किया ।
महतत्व से ग्यारह इन्द्रियों के ग्यारह अभिमानी देवता प्रकट हुये । पहले मन के अभिमानी इन्द्र और कामदेव हुये । बाद में अन्य देव उत्पन्न हुये । इसी प्रकार द्रोण प्राण ध्रुव आदि ये आठ वसु हुये । रुद्रों की सख्या दस है । मूल रुद्र भव कहे जाते हैं । रैवन्तेय । भीम । वामदेव । वृषाकपि । अज । समपाद । अहिर्बुधन्य । बहुरूप । महान ये दस रुद्र हैं । उरुक्रम । शक्र । विवस्वान । वरुण । पर्जन्य । अतिवाहु । सविता । अर्यमा । धाता । पूषा । त्वष्टा । भग ये बारह आदित्य हैं । प्रभव । अतिवह आदि उनचास मरुदगण हैं । पुरुरवा । आर्द्रव । धुरि । लोचन । क्रतु । दक्ष । सत्य । वसु । काम । काल । ये दस विश्वेदेव हैं ।
इन्द्रियों के अभिमानी देवो के समान ही स्पर्श रूप रस गन्ध आदि तत्वों के अभिमानी अपान व्यान उदान आदि वायु देवों की सृष्टि हुयी । रैवत । चाक्षुष । स्वरोचिष । उत्तम । ब्रह्मसावर्णि । रुद्रसावर्णि । देवसावर्णि । दक्षसावर्णि । धर्मसावर्णि आदि मनु हुये । ऐसे ही पितरों के सात गण हुये । इनसे वरुण आदि की पत्नी के रूप में गंगा आदि का आविर्भाव हुआ । च्यवन महर्षि भृगु के पुत्र और उतथ्य ब्रहस्पति के पुत्र हुये ।

सृष्टि का रहस्य..2

जब महाप्रभु उन सम्बन्ध रहित तत्वों में प्रविष्ट हुये । इससे उनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ । सबसे पहले भगवान ने हिरण्यात्मक ब्रह्माण्ड बनाया । जो पचास करोड योजन में ( एक योजन बारह किलोमीटर के बराबर होता है । ) फ़ैला हुआ था । उसके ऊपर अवस्थित अत्यन्त सूक्ष्म भाग भी उतने ही विस्तार में फ़ैला हुआ था । जितने में उस हिरण्मय अण्ड का विस्तार था । उसके भी ऊपर पचास करोड योजन भूतल था । यह सात आवरणों द्वारा चारों ओर परिधि से घिरा हुआ था । पहले आवरण का नाम कबन्ध है । दूसरा आवरण
अग्निदेव का है । तीसरा आवरण महात्मा हर का है । चौथा आवरण आकाश का है । पांचवा आवरण अहंकार का है । छठा आवरण महतत्व का है । सातवां आवरण त्रिगुणात्मक है । इसके बाद अव्याकृत आकाश है । इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं है । इसी मण्डल के मध्य अव्यय हरि हरि रहते हैं । आठवां आवरण आकाश का है । इसके मध्य में विरजा नदी है । इसका विस्तार पांच योजन का है । विरजा नदी में स्नान करके लिंग देह का परित्याग करके हरि के मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । प्रारब्ध कर्म क्षय हो जाने पर ही विरजा में स्नान सम्भव होता है । इस विरजा नदी का प्रलय में भी लय नहीं होता । ये लक्ष्मी स्वरूप है । क्योंकि ये प्राणी के लिंग स्वरूप का नाश करती है । विरजा नदी के बाद व्याकृत आकाश है । जो निःसीम है । इसकी अभिमानी देवता लक्ष्मी है । सृष्टि के समय़ ब्रह्माण्ड के अभिमानी देवता ब्रह्मा थे । जो विराट कहे गये । इस प्रकार ब्रह्माण्ड आदि का सृजन करके हरि उन तत्वाभिमानी देवताओं के साथ उस ब्रह्माण्ड के ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त होकर नित्य स्थित रहते हैं । इसको प्राकृत सृष्टि है । अव्यक्त आदि से लेकर प्रथ्वी तक के जो भी तत्व इस अण्ड रूप जगत में बाह्य रूप से उत्पन्न हुये हैं । ये सभी प्राकृत सृष्ट कहे जाते हैं । और ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्डान्तवर्ती सृष्टि वैकृत सृष्टि कही जाती है । जिन्हें पुरुष कहते हैं । वे हरि हैं । उन हरि ने उस हिरण्मय अण्ड के मध्य जलराशि में एक हजार वर्ष तक शयन किया । उस समय लक्ष्मी जल रूप में थी । शय्या रूप विध्या थी । तरंग रूप वायु थे । और तम ही निद्रा रूप था । इसके अतिरिक्त वहां कोई नहीं था । उसी उदक के मध्य भगवान नारायण योगनिद्रा में स्थित थे । उस समय लक्ष्मी ने उनकी स्तुति की । हरि की प्रकृति ही उस समय लक्ष्मी और धरा या भू देवी का रूप धारण कर लेती है ।
और शेष वेद रूप धारण करके उन सोये हरि की स्तुति करते हैं । फ़िर वे महाविष्णु निद्रा का परित्यागकर प्रबुद्ध हो उठे । उस समय उनकी नाभि से सम्पूर्ण जगत का आश्रय भूत हिरण्मय पद्म प्रादुर्भूत हुआ । इसे प्राकृत सृष्टि के रूप में समझना चाहिये । उस सृष्टि की अभिमानी देवता भूदेवी थी । यह पद्म असंख्य सूर्य के समान प्रकाशवान है । चिदानन्दमय विष्णु उससे भिन्न हैं । इसे भगवान का किरीट आदि आभूषण समझना चाहिये । हरि के किरीट आदि भी दो प्रकार के हैं । एक स्वरूप भूत । दूसरा स्वरूप भिन्न । उस हिरण्मय पद्म से सभी लोकों के विधायक ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुयी । उस पद्म से चतुर्मुख ब्रह्मा हुये । किसने मुझे बनाया ? वे प्रभु कौन है ? ऐसी जिग्यासा से ब्रह्मा उस पद्म के नाल में प्रविष्ट हो गये । किन्तु अग्यानवश होने से कुछ जान न सके । उस समय उन्हें तप तप ये दो शब्द सुनाई दिये । तब ब्रह्मा ने हरि की एक हजार दिव्य वर्ष तक तपस्या की । तब भगवान प्रसन्न होकर प्रकट हो गये । और ब्रह्मा द्वारा स्तुति के बाद कहा । हे ब्रह्मन ।मेरे प्रसाद से इन देवताओं की वैसी ही सृष्टि आप करें । जिस प्रकार पूर्वकाल में आपने की थी । हालांकि आपके लिये इसका कोई प्रयोजन नहीं हैं । फ़िर भी मेरी प्रसन्नता के लिये आप करें । तब महत्वात्मक ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जीव के अभिमानी देवता वायु की सृष्टि की । इस तरह वायु सृष्टि का प्रथम पुरुषात्मा है । तब ब्रह्मा ने अपने दाहिने हाथ से ब्रह्माणी और भारती इन दो देवियों की सृष्टि की । बायें हाथ से सत्य के पुत्र महतत्वात्मक अनल को ( अग्नि ) उत्पन्न किया । दाहिने हाथ से ही अहंकारात्मक
हर की सृष्टि हुयी । इसी प्रकार शेष वायु गायत्री वारुणी सौपर्णी चन्द्र इन्द्र कामदेव आदि इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं । तथा मनु शतरूपा दक्ष नारद आदि ऋषि । कश्यप अदिति वसिष्ठ आदि ब्रह्म ग्यानी ऋषि । कुबेर विष्ववक्सेन आदि की देव सृष्टि हुयी ।

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

but can u give me some evidences ?

लेखकीय -- आप लोगों की प्रतिक्रियाओं के लिये । आभार । कुछ चुनिंदा comments को जिनके उत्तर देना आवश्यक लगा । मैंने यहां लेख में शामिल किया है । अन्य लोग कृपया इसे अन्यथा न लें ।
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जय गुरूदेव की । राजीव जी कल में आपका लेख " सोते में जागो " का अनुवाद कर रहा था यह सोचकर कि गुरूपुर्णिमा से पहले ही प्रकाशित कर दूगां पर अनुवाद करते ही बिजली चली गयी,खैर आज गुरूपुर्णिमा को प्रकाशित कर दिया । spiritualismfromindia.blogspot.com
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Gulshankumar " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे 1 " पर respected Rajiv jiin sab upyogi jankariyo or margdarshan ke liye dhanyvad.thanksGulshankumar
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Akki पोस्ट " अवधूता युगन युगन हम योगी , " पर राजीव जी क्या आप के पास यह भजन ऑडियो के रूप में उपलब्ध है ? यदि हो तो कृपया उसे मेरे email id akhil_iips@rediffmail.com पर भेज देवे तो बड़ी मेहरबानी होगी !
******* मेरी बात--sorry Akki जी । मेरे पास ऑडियो नहीं है । होने पर अवश्य आपको भेजता ।
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dr.damodar पोस्ट " मृतक का अंतिम संस्कार..? " पर आध्यात्मिक ग्यान की सरिता प्रवाहित हो रही है आपके इस आलेख में। आभार!
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Mrs. Asha Joglekar पोस्ट " बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता..1 " पर Achcha laga aapka blog. Bramhan shayad Brahmadnya shabd ka prakrut roop hai. Jo brahm ko janta samazta hai wahi brahman hai klantar me isme anek pakhnad ghus gaye warna Brahman ka kam to adhyayan aur adhyapan hee tha. Kisi kal me bhee samaj buraeeyon se mukt nahee tha ye aapi bat theek hai.
******** मेरी बात ।--धन्यवाद Mrs. Asha Joglekar जी । विध्यार्थी । शिक्षक । प्रवक्ता । विद्वान । पंडित । ग्यानी । ब्राह्मण । गुरु । सतगुरु । आत्मा । परमात्मा । ये क्रमशः मनुष्य जीवन में ग्यान की उत्तरोतर प्रगति है । आप इस क्रम को गौर से देखे । पहले कोई भी । शिक्षार्थी होता है । फ़िर सीखकर शिक्षक । फ़िर विषय निपुण प्रवक्ता ।फ़िर उस विषय का विद्वान । फ़िर पंडित । फ़िर अधिक परिपक्वता पर ग्यानी । ब्राह्मण का सही अर्थ ब्रह्म में स्थिति । गुरु का मतलव । उस ग्यान का नियुक्त अधिकारी ।सतगुरु का अर्थ । शाश्वत सत्य या प्रत्येक सत्य को जानने वाला । यहां तक का ग्यान हो जाने के बाद आत्मा से परमात्मा की यात्रा भर शेष रह जाती है ।
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सुज्ञ पोस्ट " बहुत से सवाल हैं जिनका कोई जवाब नहीं देता..1 " पर राजीव जी,आस्तिकता पर एक अभिनव दृष्टिकोण!!इस सुन्दर लेख के लिये आपको बधाई देता हूंनास्तिक ये क्युं मानते हैं,कि जरा भी नास्तिकता की बातें की तो सारे आस्तिक आकर पिल पडेंगे।वस्तुतः आस्तिकता एक सौम्य अवधारणा ही है, किन्तु आप जानकर किसी अल्पज्ञानी आस्तिक को छेडेंगे तो सम्भव है कुछ आक्रोश प्रकट हो। लेकिन नास्तिको में एक मनोग्रंथी है कि,नास्तिक हुए बिना व्यक्ति आधुनिक और विकासवादी हो ही नहिं सकता।
***** मेरी बात ।--ग्यान । अग्यान । अंधेरे । उजाले । इनका निरंतर संघर्ष जीवन में उत्साह और चेतना के लिये बहुत आवश्यक है । कोई भी हो । उसकी विचारधारा समय के साथ बदलती ही है । ग्यान की तरह अग्यान भी स्थायी नहीं होता । ग्यानी का पतन । और अग्यानी का उत्थान । इतिहास में इसके करोडों उदाहरण है । ईस ही इच्छा से जीव हो गया । जीव इच्छा से ईश हो जाता है । केवल आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता । स्थिति में परिवर्तन हर पल होता है । क्योंकि प्रकृति मे निरंतर हलचल होना उसका स्वभाव ही है ।
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Rajeev पोस्ट " हठ योगी " पर जय गुरूदेव कीराजीव जी हठ योग के बारे में समझ आ गया,और मेरी रूचि भी ना तो हठ योग में है,ना ही कुन्डलनी में,मेरी रूचि तो प्रभु की कृपा पाने में है,और यह भी मानता हूँ,प्रभु एक हैं,फिर भी अम्बे माँ की ओर विशेष झुकाव है,और इसका उत्तर आपने दे भी दिया था ।आभार ।
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uthojago (http://uthojago.wordpress.com/) पोस्ट " मृत्यु के बाद का सफ़र .. " पर I believe in this philosophy but can u give me some evidences
******** मेरी बात ।--इस लाइन ने मुझे बेहद आकर्षित किया । मुझे याद है । कि बचपन में मेरे परिवार के लोग खुशी के साथ मेरा जन्मदिन मनाना चाहते थे । मैंने कहा । तुम अजीव हो । आज मैं एक साल और मर गया । इसमें खुशी किस बात की है ? तुमने मुझे बता दिया है कि इंसान सौ साल जीता है । मुझे चिंता है कि मैं उसके बाद कहां जाने वाला हूं ? मैं जानना चाहता हूं । तुम वास्तव में मेरे अपने हो ? मैं जन्म से पहले कहां था और कौन था ? तुम कौन हो जो मेरा परिवार बने हो ? ऐसे अनेकों सवाल है । जिनका जबाब न होना मुझे बैचेन करता है । मुझे लगता है । मैं खो गया हूं । फ़िर मैं खुश कैसे हो जाऊं ?
तब मैंने तय किया । मुझे लौटना होगा । उस अदृश्य की ओर । उस अग्यात की ओर । जहां से मैं आया हूं ।
और इसमें कोई शंका नहीं है ? I believe in this philosophy but can u give me some evidences . बहुत सरल है । इसका evidences देना । जरा विचार करो । आप नदी की धारा के साथ बहते हुये आ गये हो । और निरंतर बहते जा रहे हो । तब आप धारा की मर्जी और बहाव पर निर्भर हो । यह जीवन है । जीवन के पार देखना है । मृत्यु के पार देखना है ? तो धारा के विपरीत तैरना होगा । इसलिये रुक जाओ । धाराओं का वेग त्याग दो । पीछे देखो । ये धारा कहां से आ रही है ? और इसको जानने के लिये विपरीत तैरना आरम्भ कर दो । तभी सत्य का पता चलेगा । तभी अपना पता चलेगा । तभी मृत्यु का पता चलेगा । और ये बहुत आसान है । कबीर ने कहा है । जा मरिबे से जग डरे । मेरे मन आनन्द । मरने ही से पाईये पूरा परमानन्द । बुद्ध विचलित हो गये । काफ़ी समय की कठिन तपस्या के बाद भी कुछ हाथ न आया । ह्रदय से स्वतः आवाज निकली । प्रभु तुझे ऐसे ही भक्तों को परेशान करने में मजा आता है । तुरन्त अंतर में आकाशवाणी हुयी । शरीर के माध्यम का ध्यान कर । धारा आ रही है ।
मगर तुम इसको व्यर्थ व्यय कर रहे हो । पहले थिरता । फ़िर धारा के स्रोत की तरफ़ जाना । यही उस अगम देश पहुंचने का मार्ग है । जहां तुम्हारा असली परिचय छूट गया है । और बार बार मरने से मृत्यु की अनेक दीबारे खडी हो जाने से । वो तुम्हारा निज देश ओझल हो गया । जहां के तुम वासी हो । तू अजर अनामी वीर । भय किसकी खाता । तेरे ऊपर कोई न दाता ।
*******मृत्यु के बाद का सफ़र--महज एक सप्ताह में देखा जा सकता । सुई गिरने की आवाज भी न हो ऐसा स्थान । हल्का अंधेरा । न अधिक ठंडा । न अधिक गर्म । सात दिन किसी से कोई भी कैसा भी सम्पर्क नहीं ।केवल शरीर की जरूरत । भोजन । पानी । स्नान । मल मूत्र त्याग । जैसे कार्य ही कर सकते है । ऐसी व्यवस्था जिसके पास हो । वो आराम से जीवन के पार । अग्यात को । मृत्यु को । अपने अन्य जीवन को । देख सकता
है । बस कुछ नियमों को मानना होगा । सहज तरीके में मेरा अनुभव अलग है । कुछ लोगों ने पहले ही दिन बिना किसी व्यवस्था के बहुत कुछ देखा । और कुछ को छह महीने तक लग गये । अब ये प्रयोगकर्ता की मर्जी है कि वो राकेट से जाना चाहता है । हवाई जहाज से । या अन्य वाहन से ?
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संजय भास्कर पोस्ट " पांच प्रेत...five ghost " पर मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! आप बहुत ही सुन्दर लिखते है ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है !

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।