नगर अभी दूर था।
वन हिंसक जन्तुओं से
भरा पड़ा था।
सो विशाल वटवृक्ष, सरोवर
और शिव मंदिर देखकर आचार्य महीधर वहीं रुक गये, और शेष
यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा
देवी की गोद में चले गये।
आधा रात, सघन
अन्धकार, जीव-जन्तुओं की रह-रहकर आ रहीं भयंकर आवाजें, आचार्य प्रवर की नींद टूट
गई। मन किसी बात पर विचार करे, इससे पूर्व ही उन्हें कुछ
सिसकियाँ सुनाई दीं, उन्हें लगा कि पास में कोई अन्धकूप है,
उसमें पड़ा हुआ कोई रुदन कर रहा है।
अब तक सप्तमी का
चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था, हल्का-हल्का प्रकाश
फैल रहा था।
आचार्य महीधर कूप के
पास आये,
और झाँककर देखा, तो उसमें पाँच प्रेत बिलबिला
रहे थे।
दुखी अवस्था में पड़े
उन प्रेतों को देखकर महीधर को दया आ गई।
उन्होंने पूछा - तात,
आप लोग कौन हैं, और यह घोर दुर्दशा क्यों भुगत
रहे हैं?
इस पर सबसे बड़े
प्रेत ने बताया -
हम लोग प्रेत हैं। मनुष्य शरीर में किये गये पापों के दुष्परिणाम
भुगत रहे है। आप संसार में जाईये, और लोगों को बताईये कि जो
पाप कर हम लोग प्रेतयोनि में आ पड़े हैं, वह पाप और कोई न
करे।
आचार्य ने पूछा - आप
लोग यह भी तो बताईये कि कौन कौन से पाप आप सबने किये हैं, तभी
तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।
- मेरा नाम पर्युषित है
आर्य। पहले प्रेत ने बताना प्रारम्भ किया - मैं पूर्वजन्म
में ब्राह्मण था, विद्या भी खूब पढ़ी थी, किन्तु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया, हाँ अपने पांडित्य से लोगों में अन्धश्रद्धा, अन्धविश्वास
जितना फैला सकता था, फैलाया, और हर
उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से द्रव्य दोहन किया, उसी
का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ, ब्राह्मण होकर भी जो
ब्रह्मभाव नहीं रखता, समाज को धोखा देता है, वह मेरी ही तरह प्रेत होता है।
- मैं क्षत्रिय था,
पूर्वजन्म में । अब सूचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्मकथा कहनी
प्रारम्भ की - मेरे शरीर में शक्ति की कमी नहीं थी, मुझे लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर प्रमोद
वश मैं प्रजा का भक्षक ही बन बैठा। चाहे किसी को दण्ड देना, चाहे
जिसको लूट लेना ही मेरा काम था, एक दिन मैंने एक अबला को
देखा, जो जंगल में अपने बेटे के साथ जा रही थी, मैंने उसे भी नहीं छोड़ा, उसका सारा धन छीन लिया,
यहाँ तक उनका पानी तक लेकर पी लिया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मर
गये, उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।
तीसरे शीघ्रग ने
बताया -
मैं वैश्य था। मिलावट, कम तौल, ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता, तब भी कोई बात थी,
व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य
के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन लेकर लौट रहा था, रास्ते में लालच आ गया, और मैंने अपने मित्र की
हत्या कर दी, और उसकी स्त्री, बच्चों
को भी धोखा दिया, व झूठ बोला, उसकी
स्त्री ने इसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिये,
उस समय तो किसी की
पकड़ में नहीं आ सका,
पर मृत्यु से आखिर कौन बचा है तात ! मेरे पाप
ज्यों ज्यों मरणकाल समीप आता गया, मुझे संताप की भट्टी में
झोंकते गये, और आज जो मेरी स्थिति है, वह
आप देख ही रहे है। पाप का प्रतिफल ही है, जो इस प्रेतयोनि
में पड़ा मल-मूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश हूँ,
अंग-अंग से व्रण फूट रहे हैं, दुःखों का कहीं अन्त नहीं दिखाई दे रहा।
अब चौथे की बारी थी - उसने
अपने घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुये कहा - तात! मैं पूर्वजन्म में रोधक नाम का शूद्र था।
तरुणाई में मैंने ब्याह किया, कामुकता मेरे मस्तिष्क पर बुरी
तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिये भगवान हो गई, उसकी हर सुख
सुविधा का ध्यान दिया, पर अपने पिता-माता,
भाई बहनों का कुछ भी ध्यान नहीं दिया।
ध्यान देना तो दूर, उन्हें
श्रद्धा और सम्मान भी नहीं दिया। अपने बड़ों के कभी पैर छुये हों, मुझे ऐसा एक भी क्षण स्मरण नहीं। आदर करना तो दूर, जब
तब उन्हें धमकाया, और मारा पीटा भी। माता-पिता बड़े दुःख और असह्यपूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से तृप्ति नहीं
हुई, तो और विवाह किये। पहली पत्नियों को सताया, घर से बाहर निकाला। उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ, मेरे तात, और अब छुटकारे का कोई मार्ग दीख नहीं रहा।
चार प्रेत अपनी बात
कह चुके,
किन्तु पांचवां प्रेत तो आचार्य महीधर की ओर मुख भी नहीं कर रहा था।
पूछने पर अन्य प्रेतों ने बताया - यह तो हम लोगों को भी मुँह
नहीं दिखाते, बोलते बातचीत तो करते हैं, पर अपना मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।
- आप भी तो कुछ बताईये।
आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया।
इस पर घिघियाते स्वर
में मुँह पीछे ही फेरे-फेरे पांचवें प्रेत ने बताया - मेरा नाम कलाकार है,
मैं पूर्वजन्म में एक अच्छा लेखक था, पर मेरी
कलम से कभी नीति, धर्म और सदाचार नहीं लिखा गया। कामुकता,
अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा मैंने, ऐसे ही संगीत, नृत्य और अभिनय का सृजन किया, जो फूहड़ से फूहड़ और कुत्सायें जगाने वाला रहा हो।
मैं मूर्तियाँ और
चित्र एक से एक भावपूर्ण बना सकता था, किन्तु उनमें भी कुरुचि
वर्द्धक वासनायें और अश्लीलतायें ही गढ़ी। सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध
लगाकर मुझे यमराज ने प्रेत बना दिया। किन्तु मैं यहाँ भी इतना लज्जित हूँ कि अपना
मुँह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।
आचार्य महीधर ने
अनुमान लगाया कि अपने अपने कर्त्तव्यों से गिरे हुये यह ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र और कलाकार कुल पाँच ही थे,
इन्हें प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है, और
आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण, हर क्षत्रिय, वैश्य और प्रत्येक शूद्र कर्त्तव्यच्युत हो रहा है, हर
कलाकार अपनी कलम और तूलिका से हित-अनहित की परवाह किये बिना
वासना की गन्दी कीचड़ उछाल रहा है, तब आने वाले कल में
प्रेतों की संख्या कितनी भयंकर होगी।
कुल मिलाकर सारी धरती
नरक में ही बदल जायेगी। सो लोगों को कर्त्तव्य जाग्रत करना ही आज की सबसे बड़ी
आवश्यकता है।
अब तक प्रातःकाल हो
चुका था।
आचार्य महीधर यह
संकल्प लेकर चल पङे।
और पाँचों प्रेतों की
कहानी सुना सुनाकर मार्ग भ्रष्ट लोगों को सही पथ प्रदर्शन करने लगे।
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