शुक्रवार, सितंबर 17, 2010

आचार्य महीधर और पांच प्रेत




नगर अभी दूर था।
वन हिंसक जन्तुओं से भरा पड़ा था।
सो विशाल वटवृक्ष, सरोवर और शिव मंदिर देखकर आचार्य महीधर वहीं रुक गये, और शेष यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में चले गये।

आधा रात, सघन अन्धकार, जीव-जन्तुओं की रह-रहकर आ रहीं भयंकर आवाजें, आचार्य प्रवर की नींद टूट गई। मन किसी बात पर विचार करे, इससे पूर्व ही उन्हें कुछ सिसकियाँ सुनाई दीं, उन्हें लगा कि पास में कोई अन्धकूप है, उसमें पड़ा हुआ कोई रुदन कर रहा है।

अब तक सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था, हल्का-हल्का प्रकाश फैल रहा था।

आचार्य महीधर कूप के पास आये, और झाँककर देखा, तो उसमें पाँच प्रेत बिलबिला रहे थे।
दुखी अवस्था में पड़े उन प्रेतों को देखकर महीधर को दया आ गई।

उन्होंने पूछा - तात, आप लोग कौन हैं, और यह घोर दुर्दशा क्यों भुगत रहे हैं?

इस पर सबसे बड़े प्रेत ने बताया - हम लोग प्रेत हैं। मनुष्य शरीर में किये गये पापों के दुष्परिणाम भुगत रहे है। आप संसार में जाईये, और लोगों को बताईये कि जो पाप कर हम लोग प्रेतयोनि में आ पड़े हैं, वह पाप और कोई न करे।

आचार्य ने पूछा - आप लोग यह भी तो बताईये कि कौन कौन से पाप आप सबने किये हैं, तभी तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।

- मेरा नाम पर्युषित है आर्य। पहले प्रेत ने बताना प्रारम्भ किया - मैं पूर्वजन्म में ब्राह्मण था, विद्या भी खूब पढ़ी थी, किन्तु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया, हाँ अपने पांडित्य से लोगों में अन्धश्रद्धा, अन्धविश्वास जितना फैला सकता था, फैलाया, और हर उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से द्रव्य दोहन किया, उसी का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ, ब्राह्मण होकर भी जो ब्रह्मभाव नहीं रखता, समाज को धोखा देता है, वह मेरी ही तरह प्रेत होता है।

- मैं क्षत्रिय था, पूर्वजन्म में । अब सूचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्मकथा कहनी प्रारम्भ की - मेरे शरीर में शक्ति की कमी नहीं थी, मुझे लोगों की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर प्रमोद वश मैं प्रजा का भक्षक ही बन बैठा। चाहे किसी को दण्ड देना, चाहे जिसको लूट लेना ही मेरा काम था, एक दिन मैंने एक अबला को देखा, जो जंगल में अपने बेटे के साथ जा रही थी, मैंने उसे भी नहीं छोड़ा, उसका सारा धन छीन लिया, यहाँ तक उनका पानी तक लेकर पी लिया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मर गये, उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।

तीसरे शीघ्रग ने बताया - मैं वैश्य था। मिलावट, कम तौल, ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता, तब भी कोई बात थी, व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन लेकर लौट रहा था, रास्ते में लालच आ गया, और मैंने अपने मित्र की हत्या कर दी, और उसकी स्त्री, बच्चों को भी धोखा दिया, व झूठ बोला, उसकी स्त्री ने इसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिये,
उस समय तो किसी की पकड़ में नहीं आ सका, पर मृत्यु से आखिर कौन बचा है तात ! मेरे पाप ज्यों ज्यों मरणकाल समीप आता गया, मुझे संताप की भट्टी में झोंकते गये, और आज जो मेरी स्थिति है, वह आप देख ही रहे है। पाप का प्रतिफल ही है, जो इस प्रेतयोनि में पड़ा मल-मूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश हूँ, अंग-अंग से व्रण फूट रहे हैं, दुःखों का कहीं अन्त नहीं दिखाई दे रहा।

अब चौथे की बारी थी - उसने अपने घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुये कहा - तात! मैं पूर्वजन्म में रोधक नाम का शूद्र था। तरुणाई में मैंने ब्याह किया, कामुकता मेरे मस्तिष्क पर बुरी तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिये भगवान हो गई, उसकी हर सुख सुविधा का ध्यान दिया, पर अपने पिता-माता, भाई बहनों का कुछ भी ध्यान नहीं दिया।
ध्यान देना तो दूर, उन्हें श्रद्धा और सम्मान भी नहीं दिया। अपने बड़ों के कभी पैर छुये हों, मुझे ऐसा एक भी क्षण स्मरण नहीं। आदर करना तो दूर, जब तब उन्हें धमकाया, और मारा पीटा भी। माता-पिता बड़े दुःख और असह्यपूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से तृप्ति नहीं हुई, तो और विवाह किये। पहली पत्नियों को सताया, घर से बाहर निकाला। उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ, मेरे तात, और अब छुटकारे का कोई मार्ग दीख नहीं रहा।

चार प्रेत अपनी बात कह चुके, किन्तु पांचवां प्रेत तो आचार्य महीधर की ओर मुख भी नहीं कर रहा था। पूछने पर अन्य प्रेतों ने बताया - यह तो हम लोगों को भी मुँह नहीं दिखाते, बोलते बातचीत तो करते हैं, पर अपना मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।

- आप भी तो कुछ बताईये। आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया।

इस पर घिघियाते स्वर में मुँह पीछे ही फेरे-फेरे पांचवें प्रेत ने बताया - मेरा नाम कलाकार है, मैं पूर्वजन्म में एक अच्छा लेखक था, पर मेरी कलम से कभी नीति, धर्म और सदाचार नहीं लिखा गया। कामुकता, अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा मैंने, ऐसे ही संगीत, नृत्य और अभिनय का सृजन किया, जो फूहड़ से फूहड़ और कुत्सायें जगाने वाला रहा हो।
मैं मूर्तियाँ और चित्र एक से एक भावपूर्ण बना सकता था, किन्तु उनमें भी कुरुचि वर्द्धक वासनायें और अश्लीलतायें ही गढ़ी। सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध लगाकर मुझे यमराज ने प्रेत बना दिया। किन्तु मैं यहाँ भी इतना लज्जित हूँ कि अपना मुँह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।

आचार्य महीधर ने अनुमान लगाया कि अपने अपने कर्त्तव्यों से गिरे हुये यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और कलाकार कुल पाँच ही थे, इन्हें प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है, और आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण, हर क्षत्रिय, वैश्य और प्रत्येक शूद्र कर्त्तव्यच्युत हो रहा है, हर कलाकार अपनी कलम और तूलिका से हित-अनहित की परवाह किये बिना वासना की गन्दी कीचड़ उछाल रहा है, तब आने वाले कल में प्रेतों की संख्या कितनी भयंकर होगी।
कुल मिलाकर सारी धरती नरक में ही बदल जायेगी। सो लोगों को कर्त्तव्य जाग्रत करना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

अब तक प्रातःकाल हो चुका था।
आचार्य महीधर यह संकल्प लेकर चल पङे।
और पाँचों प्रेतों की कहानी सुना सुनाकर मार्ग भ्रष्ट लोगों को सही पथ प्रदर्शन करने लगे।

महीधर और पांच प्रेत



आचार्य महीधर प्रतिदिन एक गाँव से दूसरे गाँव, एक नगर से दूसरे नगर भ्रमण करके लोगों को आत्मज्ञान, धर्म और वेदों का उपदेश दिया करते थे । एक दिन वह अपने शिष्यों की मंडली को लेकर एक जंगल से गुजर रहे थे ।
संध्या होने को आई थी और अमावस्या की रात होने से जल्दी ही अँधेरा होने की आशंका थी । अतः आचार्य महीधर ने सुरक्षित स्थान देख रात्रि विश्राम वही करने का निश्चय किया ।

जलपान करके सभी सोने के लिए गये ।
धीरे-धीरे करके सम्पूर्ण मण्डली गहरी निद्रा में सो गई ।
लेकिन आचार्य महीधर अब भी सुदूर अंतरिक्ष में तारों में दृष्टि गड़ाएं एकटक देख रहे थे । शायद वह रात भर जागकर अपनी मण्डली की रखवाली करने वाले थे ।

तभी अचानक उन्हें दूर कहीं कुछ लोगों का करुण रुदन सुनाई दिया । कुतूहलवश वह उठे और उस दिशा में चल दिए जहाँ से रोने की आवाज आ रही थी । चलते-चलते वह एक ऐसे कुंएं के पास पहुँचे जिसमें अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था । लेकिन वो आवाजे उसी में से आ रही थी ।

जब आचार्य ने कुछ गौर से देखने की कोशिश की तो उन्होंने देखा कि पांच व्यक्ति औंधे मुँह लटके बिलख बिलख कर रो रहे हैं ।

आचार्य उन्हें इस अवस्था में देख अचंभित थे । उनकी मदद करने से पूर्व उन्होंने उन्हें पूछना उचित समझा और बोले - आप कौन हैं, और आपकी यह दुर्गति कैसे हुई, और आप यहाँ से निकलने का प्रयास क्यों नहीं करते?

आचार्य की आवाज सुनकर पांचो व्यक्ति चुप हो गये ।
और कुछ देर के लिए कुंएं में सन्नाटा छा गया ।

तब आचार्य बोले - यदि तुम लोग कहो तो, मैं तुम्हारी कोई मदद करूँ ।

तब उनमें से एक व्यक्ति बोला - आचार्य जी, आप हमारी कोई मदद नहीं कर सकते, क्योंकि हम पांचों प्रेत है । हमें हमारे कर्मों का फल भोगने के लिए औंधे मुँह इस कुंएं में लटकाया गया है । विधि के विधान को तोड़ सकना न आपके लिए संभव है, न ही हमारे लिए । 

आचार्य उन प्रेतों की यह बात सुनकर स्तब्ध रह गये ।

और उत्सुकतावश उन्होंने पूछा - भाई, मुझे भी बताओ, ऐसे कौन से कर्म हैं, जिनके करने से तुम्हारी ऐसी दुर्गति हुई?

सभी प्रेतों ने एक-एक करके अपनी दुर्गति का कारण बताना शुरू किया ।

उनमें से पहला प्रेत बोला - मैं पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण था । कर्मकाण्ड करके दक्षिणा बटोरता था, और भोग-विलास में झोंक देता था । जिन शिक्षाओं का उपदेश मैं लोगों के लिए करता था । मैंने स्वयं उनका कभी पालन नहीं किया । ब्रह्मकर्मों की ऐसी उपेक्षा करने के कारण मेरी ऐसी दुर्गति हुई है । 

दूसरा प्रेत बोला - मैं पूर्वजन्म में एक क्षत्रिय था । ईश्वर की दया से मुझे दीन दुखियों की सेवा और सहायता करने का मौका मिला था । लेकिन मैंने अपनी ताकत के दम पर दूसरों का हक़ मारने और मद्य, मांस और वेश्यागमन जैसे निहित स्वार्थों को साधने में अपना जीवन खराब किया । जिसके कारण मेरी ऐसी दुर्गति हुई है ।

तीसरा प्रेत बोला - पूर्वजन्म में मैं एक वैश्य था । मैंने मिलावटखोरी की सारी हदें पार कर दी थी । अधिक पैसा बनाने के चक्कर में मैंने सस्ता और नकली माल भी महंगे दामों पर बेचा है । कंजूस इतना था कि कभी किसी को एक पैसे की भिक्षा या दान नहीं दिया । मेरे इन्हीं दुष्ट कर्मों के फलस्वरूप मेरी यह दुर्दशा हुई है । 

चौथा प्रेत बोला - पिछले जन्म में मैं एक शूद्र था । नगर की सफाई का काम मुझे ही दिया जाता था लेकिन मैं था पक्का आलसी । कभी अपने कार्य को पूरा नहीं करता था । महामंत्री से विशेष जान पहचान होने के कारण कोई भी मेरे खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कर पाता था । इसलिए मैं किसी की नहीं सुनता था, और खुद की ही मनमानी करता था । अपनी उसी लापरवाही और उद्दंडता का परिणाम आज मैं भुगत रहा हूँ । 

तभी आचार्य ने पांचवें प्रेत की ओर देखा, तो वह अपना मुँह छिपा रहा था । यहाँ तक कि वह अपने साथियों से भी अपना मुँह छिपाए रहता था ।
महीधर ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उससे पूछा, तो वह रोते हुए बोला - पूर्वजन्म में एक कुसाहित्यकार था । मैंने अपनी लेखनी से हमेशा सामाजिक नीति मर्यादाओं का खण्डन किया, और लोगों को अनैतिक शिक्षा के लिए प्रेरित किया है । अश्लीलता और कामुकता का साहित्य लिखकर लोगों को दिग्भ्रमित करना ही मेरी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा रहस्य है ।
जिस किसी भी राजा को किसी राज्य पर विजय प्राप्त करनी होती, वो मुझे लोगों को चरित्रहीन बनाने वाला साहित्य लिखने के लिए धनराशि देता था, और मैं अश्लीलता और कामुकता से भरपूर साहित्य लिखकर लोगों को चरित्रहीन बनाता था । मेरे उन्हीं दुष्कमों पर मुझे इतनी लज्जा है कि आज मैं किसी को भी मुँह नहीं दिखा सकता ।

इतना कहकर वह जोर-जोर से रोने लगा ।

तब आचार्य महीधर ने उनसे पूछा - तुम लोग यहाँ से कब मुक्त होओगे

पांचो प्रेत बोले - हम तो अपने कर्मफल और विधि के विधान के अनुसार ही यहाँ से मुक्त हो सकते हैं । लेकिन तुम हमारी दुर्गति की कहानी लोगों को बता देना, ताकि जो गलती हमने की, वो दूसरे लोग ना करें ।

उनकी बात जन-जन तक पहुँचाने का आश्वासन देकर आचार्य महीधर वापस लौट आये ।

उस दिन के बाद वह जहाँ भी उपदेश देने जाते, उसके साथ उन पांचों प्रेतों की कथा भी जोड़ देते थे ।

गुरुवार, सितंबर 02, 2010

अघोरवासा की एक रात



रात के बारह बज चुके थे ।
उस वातानुकूलित कमरे में नतालिया, मनोहर और सवेटा मौजूद थे ।
सवेटा इंटरनेट पर किसी फ़्रेंड से चैटिंग में व्यस्त थी, और नतालिया बेड पर मनोहर के पास ही तीन तकियों के सहारे अधलेटी सी बैठी थी । उन्होंने कुछ ही देर पहले सेक्स किया था । जिसमें सवेटा ने इच्छा न होने से भाग तो नहीं लिया था । पर बाहरी तौर पर उनका साथ देते हुये उसने पूरा एन्जाय अवश्य किया था ।
नतालिया ने अभी भी वस्त्र नहीं पहने थे, और पैरों पर एक चादर डाले, वो एक पतली सी लम्बी विदेशी सिगरेट के कश लगा रही थी । मनोहर ने प्रायः लेडीज सिगरेट का टेस्ट कम ही लिया था । अतः उसने भी उसके सिगरेट बाक्स से एक सिगरेट निकाल कर सुलगा ली ।
नतालिया से उसकी पहचान दस महीने पहले इंटरनेट के जरिये ही हुयी थी । वह यूनाइटेड किंगडम के एक पब्लिकेशन के लिये सीनियर रिपोर्टर का कार्य करती थी, और न्यूयार्क में रहती थी । नतालिया बत्तीस की हो चुकी थी । उसके परिवार में उसकी एक छोटी बहन और माँ के अलावा कोई न था । उसके पिता जीवित थे पर उनका आपस में तलाक हो चुका था ।
नतालिया ने विवाह तो नही किया था । पर छह साल तक मार्टिन के साथ रहने के बाद उनकी फ़्रेंडशिप में दरार पङ गयी, और वे स्वेच्छा से अलग अलग रहने लगे ।
मार्टिन से नतालिया को चार साल का एक लङका भी था ।
नतालिया भारत में मैगजीन के काम से, यानी भारत के अघोरी साधुओं पर एक विस्त्रत रिपोर्ट तैयार करने के लिये आयी थी । एडीटर द्वारा जब ये काम उसे सौंपा गया, तो नतालिया को स्वतः ही मनोहर का नाम याद आया, और उसने फ़ोन पर अपने आने की सूचना दी ।
मनोहर ने उसे समझाना चाहा कि अघोरियों की रिपोर्टिंग करना तुम्हारे बस की बात नहीं है । अतः अपने एडीटर को बोलो कि इस काम के लिये किसी पुरुष रिपोर्टर को भेजे ।
तब उसने जबाब दिया कि एक तो वह इंडिया आना चाहती है, और दूसरे उसकी निजी ख्वाहिश है, कि वो अघोरियों को पास से देखे, और इस तरह से घूमने में उसका एक भी पैसा खर्च नहीं होगा, और रही बात पुरुष की, तो उसके लिये तुम हो तो, माय डियर हीमैन ।
अब आगे कहने के लिये जैसे उसके पास कुछ बचा ही नहीं था ।
फ़िर चौथे दिन नतालिया अपनी फ़्रेंड सवेटा के साथ, इंडिया में, उसके घर में, उसके बेडरूम में साधिकार मौजूद थी । सिगरेट के कश लगाता हुआ मनोहर एक ही बात सोच रहा था कि औरत अभी कितनी तरक्की और करेगी । दो लगभग अनजान लङकियाँ उसके अकेले के बेडरूम में कुछ देर की चुहलबाजी के बाद सेक्स करती हैं, और बिना किसी औपचारिकता के इस तरह बर्ताव करती हैं । मानो उनकी जान पहचान बहुत पुरानी हो ।
- क्या सोच रहे हो मनोहर? अचानक नतालिया ने उसकी तरफ़ देखते हुये अंग्रेजी में कहा ।
- यही कि मुसीबत, कभी पहले से बताकर नहीं आती । उसने अफ़सोस सा प्रकट करते हुये कहा ।
इसके साथ ही कमरा उन दोनों की मधुर खिलखिलाहट से गूँज उठा ।
सवेटा ने कम्प्यूटर आफ़ कर दिया था ।
फ़िर उसने लाइट भी आफ़ कर दी, और लगभग जम्पिंग स्टायल में बेड पर आ गयी ।
अब सवेटा सेक्स के लिये इच्छुक हो रही थी । पर उसे और नतालिया को नींद आ रही थी ।
अतः वे गुडनाइट करके सो गये ।
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सुबह जब वह नतालिया के साथ ब्रेकफ़ास्ट ले रहा था, तब उसकी बात की गम्भीरता उसे समझ में आयी । दरअसल उसके सहयोग से यदि नतालिया बेहतरीन रिपोर्टिंग करने में कामयाब हो जाती, तो उस वीडियो से न सिर्फ़ वह ढेरों डालर कमा सकती थी, बल्कि उसका कैरियर भी चमक सकता था ।
इसलिये जिस बात को वह बेहद हल्के से ले रहा था, यानी कि पास के कुछ घाटों पर मध्यम किस्म के अघोरियों का इंटरव्यू करवा देना, वो इरादा अब उसने बदल दिया था, और अब वह पूरा पूरा रिस्क उठाकर उसे ‘झूलीखार’ के जंगलों में एक रात के लिये ले जाना चाहता था । जहाँ बेहद खतरनाक किस्म के अघोरी बाबाओं का जमावङा रहता था । उसने अपने मित्र सुनील को फ़ोन किया कि अपनी स्पेशियो गाङी ड्राइवर के हाथों उसके पास भिजवा दे ।
‘झूलीखार’ जंगल बसेरबा पुल से चालीस किलोमीटर अंदर की तरफ़ था, और कोई भी आदमी दिन में भी वहाँ जाने की हिम्मत नहीं करता था । बसेरबा पुल से पाँच किलोमीटर अन्दर चलकर एक शमशान था । बस वहीं तक पास के गाँवों के लोग पशु आदि चराने जाते थे । लेकिन वे शमशान के पास जाने में भी परहेज करते थे । क्योंकि एक तो उसका माहौल ही बेहद डरावना था, और दूसरे वहाँ से खतरनाक अघोरियों का इलाका शुरू हो जाता था ।
बसेरबा पुल से ही धङधङाकर बहती हुयी गंगा नहर शमशान तक पहुँचते पहुँचते मानो रौद्र रूप धारण कर लेती थी, और उस पर जगह जगह घूमते काले भयानक अघोरी जो देह पर चिता की राख मले रहते थे । आम लोगों के दिलों में खौफ़ पैदा करने के लिये पर्याप्त थे । शमशान के बाद ही अक्सर उनके द्वारा खायी गयी मानव लाशों के सङे टुकङे किसी भी जिगरवाले का दिल हिला देने के लिये काफ़ी थे ।
झूलीखार का जंगल इतने घने वृक्षों से आच्छादित था कि दिन के समय में भी रात का सा आभास होता था, और उसकी वजह यही थी कि अघोरियों के डर से कभी भी कोई लकङी या वृक्ष काटने नहीं जाता था । मनोहर इससे पहले तीन बार झूलीखार जा चुका था । पर इस बार जो हल्की सी घबराहट उसे हो रही थी । वो इससे पहले कभी नहीं हुयी थी, और इसकी मुख्य वजह उसके साथ जाने वाले उसके विदेशी मेहमान ही थे ।
हालांकि नतालिया और सवेटा अपनी तरफ़ से पूरी दिलेरी दिखा रही थी । पर वास्तविकता में मनोहर जानता था कि झूलीखार पहुँचते ही इनकी सिट्टीपिट्टी गुम हो जाने वाली थी, और वास्तव में अन्दर ही अन्दर वह यह भी सोच रहा था कि इन्हें झूलीखार ले जाने का उसका निर्णय सही था, या गलत । पर वह ठीक ठीक कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था ।
दरअसल, वह झूलीखार लगभग चार साल बाद जा रहा था, और इतने समय में वहाँ कई नये अघोरी इकठ्ठे हो गये, हो सकते थे । फ़िर उसके परिचित अघोरी साधु मिलें, या न मिलें । इसकी भी कोई गारंटी नहीं थी । नये अघोरी अधिक संख्या में भी हो सकते थे, जबकि दो जवान युवतियों के साथ अकेला सिर्फ़ वह ही था । रात को अघोरी कच्ची शराब पीकर अक्सर उन्मत्त हो जाते थे । तब हो सकता था कि जवान खूबसूरत लङकियों को देखकर उनका संयम टूट जाय, और वे लङकियों के साथ सामूहिक रूप से बलात्कार कर बैठें ।
ऐसी तमाम बातें एक के बाद एक उसके दिलोदिमाग में चक्कर काट रही थीं । जब नतालिया ने यकायक उसकी आँखों के आगे हाथ हिलाते हुये ‘हेलो..हेलो’ कहकर उसकी तन्द्रा भंग की । और तब उसे सुनाई पङा कि बाहर स्पेशियो का हार्न बज रहा था । फ़िर अचानक ही उसके दिमाग में एक और विचार आया, और उसने सुनील को फ़ोन लगाकर कहा कि अगर आज की रात वह उसका ड्राइवर भी साथ ले जाये तो ।
सुनील ने पूछा - कोई विशेष बात है क्या?
उसने संक्षेप में, मगर बात की गम्भीरता उसे पूरी तरह समझा दी ।
सुनील उसके लिये चिन्तित हो गया, और एक बार तो उसने न जाने की सलाह ही दे डाली ।
मगर बाद में मान गया ।
अब उसके ड्राइवर को समझाना था ।
झूलीखार का नाम सुनते ही उसने मनोहर को इस तरह देखा कि मानो उसके सिर पर सींग निकल आये हों, और वह एकदम पागल हो । लेकिन उसका इलाज वह अच्छी तरह से जानता था ।
वह इंकार करे, इससे पहले ही उसने दो बङे गांधी उसकी आँखों के आगे लहराये, और बोला - इतने ही लौटने के बाद, ये एडवांस रखो ।
एक महीने की तनखाह एक रात में । कैसे इंकार करता बेचारा ।
गाङी में जरूरत का सभी सामान रख लेने के बाद दोपहर दो बजे वे झूलीखार के लिये रवाना हो गये, और ठीक चार बजे बसेरबा पुल पर पहुँच गये । नतालिया बीच बीच में गाङी रुकवा कर फ़ोटो लेती, और शूटिंग भी करती । नतालिया जब अपने काम में व्यस्त थी । वह अपनी गोद में लेटी हुयी सवेटा से पूछ रहा था कि क्या उसे पिस्टल चलाना आता है ।
दरअसल सुरक्षा के लिहाज से उसने तीन पिस्टल का इंतजाम करके रख लिया था । और अब तो ड्राइवर के भी साथ होने से वह लगभग निश्चिन्त था । क्योंकि अघोरी हो, या कोई अन्य, जान सबको प्यारी होती है । दो आदमी, और दो पिस्टल चलाने में सक्षम युवतियाँ, तब किसी का बाप भी उनका कुछ नहीं बिगाङ सकता था ।
हाँ, लेकिन एक आम आदमी को अघोरियों के कारनामों और उनकी छुपी शक्तियों के प्रति जैसा भय होता है, वैसा उसे कतई नहीं था । और उनकी किसी भी प्रकार की तांत्रिक मांत्रिक शक्ति उसका कुछ नहीं बिगाङ सकती थी ।
बसेरबा पुल से शमशान तक का रास्ता तय करने में ही एक घन्टा और लग गया । हालांकि शमशान तक पक्का खडंजा रोड था । फ़िर भी किनारे पर उगी झाङियों और बीच बीच में बेहद पतली हो गयी सङक आदि दिक्कतों की वजह से गाङी स्लो ही चल पा रही थी ।
उस पर नतालिया बारबार फ़ोटोग्राफ़ी के लिये रोक देती ।
शमशान के परिसर में पहुँचकर स्पेशियो रुक गयी, और वे चारों गाङी से बाहर निकल आये । दरअसल उसने यहाँ गाङी जानबूझ कर रुकवायी थी । क्योंकि वह ड्राइवर और दोनों लङकियों पर उस जगह का रियेक्शन देखना चाहता था ।
ड्राइवर के चेहरे पर तो उसे कुछ कुछ दहशत के भाव से नजर आये ।
पर सवेटा और नतालिया इस तरह प्रसन्न थी कि मानो शमशान में न होकर किसी पिकनिक स्पाट पर आयी हों । नतालिया बेहद तन्मयता से शमशान की वीडियोग्राफ़ी कर रही थी ।
उसने एक सिगरेट सुलगा ली, और शमशान की बाउंड्रीवाल पर बैठकर कश लगाने लगा ।

उफ़ ! दुनियां के लिये अत्यन्त डरावने लगने वाले इस स्थान पर कितनी घनघोर शान्ति थी ।

अघोरवासा की एक रात 2


शाम के सवा पाँच बज चुके थे ।
और झूलीखार स्थिति ‘अघोरवासा’ अभी भी यहाँ से पैंतीस किलोमीटर दूर था ।
जबकि शमशान के आगे खङंजा जैसी भी कोई सङक नहीं थी ।
पर एक बात जो राहत देने वाली थी । वह ये थी कि शमशान के रास्ते की अपेक्षा वो कच्चा दङा अधिक चौङा और गाङी चलाने के लिये सुगम था । लगभग दो किलोमीटर आगे बढ़ते ही इस तरह गाढ़ा अन्धकार हो गया, मानो अमावस की काली रात हो । और इसकी खास वजह बेहद घने वे पेङ थे, जो झूलीखार में बे तादाद थे ।
पर इससे बेखबर बोर सा महसूस करती हुयी नतालिया और सवेटा मानो उसके साथ किस किस खेल रही थीं । जबकि वह आने वाली परस्थितियों को लेकर चिंतित था । और ये चिंता अगर वह उन तीनों के सामने भी जाहिर कर देता, तो उनका मनोबल और भी टूट सकता था । अब उसे प्रसून की याद आ रही थी कि अगर वो साथ होता, तो वह काफ़ी हद तक निश्चिन्त रह सकता था । बल्कि एकदम ही निश्चिन्त रह सकता था । पर प्रसून बाबाजी के साथ तिब्बत गया था ।
अघोरवासा से तीन किलोमीटर पहले ही कुछ कुछ निर्वस्त्र अघोरी और अघोरिंने नजर आने लगे । नतालिया वीडियो कैमरा लेकर तेजी से उन्हें शूट कर रही थी, और सवेटा के हाथ में स्टिल कैमरा था । लेकिन ड्राइवर रतीराम अब शक्ल से ही भयभीत लग रहा था ।
अभी वे गाङी के अन्दर ही थे कि तभी गाङी के इंजन की आवाज से आकर्षित होकर करीब पचीस अघोरियों का एक दल गाङी के सामने आ गया, और स्पेशियो की खिङकी में जोरदार डंडा मारा ।
इस स्थिति के बारे में उसने तीनों को पहले ही समझा दिया था ।
- पंगा । उसके मुँह से निकला ।
फ़िर उसने प्रसून भाई की एक कूटनीति अपनाते हुये बेहद कामुकता से उन छह अघोरिनों को देखा, जो अर्धनिर्वस्त्र सी अघोरियों के बीच खङी थीं, और स्पेशियो का द्वार खोलकर अकेला ही बाहर निकल आया । वे सब के सब जैसे बेहद अजीब निगाहों से उसे देख रहे थे ।
वह लगभग टहलने के अन्दाज में उस अघोरी के पास पहुँचा ।
जो उनका लीडर मालूम होता था, और जिसने गाङी में डंडा मारा था ।
फ़र्स्ट इम्प्रेस, इज द लास्ट इम्प्रेस ।
बिना किसी चेतावनी, बिना कोई बात किये, उसने एक भरपूर मुक्का उस तगङे अघोरी के मुँह पर मारा, और रिवाल्वर उसकी ओर तान दिया । साथ ही गाङी की तरफ़ इशारा किया, जहाँ खिङकी खोले खङी दो विदेशी हसीनायें किसी फ़िल्मी पोस्टर की तरह उनकी तरफ़ पिस्टल ताने खङी थीं । और न चाहते हुये भी, उनकी वह मुद्रा देखकर, उस परिस्थिति में भी उसकी हँसी निकल गयी ।
- इसकी गोली । फ़िर वह बेहद जहरीले स्वर में बोला - मन्त्र से पहले काम करती है, और वो ये भी नहीं देखती कि उसके द्वारा मरने वाला कौन है?
निश्चय ही उसका ये तरीका काम कर गया, और अघोरियों का वह दल चिल्लाता हुआ ‘ऊ भाला..छू चा’ आदि जैसे आदिवासियों की तरह शब्द निकालता हुआ अघोरवासा की तरफ़ भागने लगा । मनोहर की गाङी भी उनके पीछे पीछे दौङने लगी, और तीन किलोमीटर का निर्विघ्न सफ़र तय करके अघोरवासा पहुँच गयी ।
लेकिन अघोरवासा में जैसे पहले से ही कोहराम मचा हुआ था ।
और लगभग सत्तर अघोरियों का एक दल भाला, त्रिशूल, लाठी आदि लेकर जैसे उनके स्वागत के लिये तैयार था । दरअसल उन्हें उसकी निर्भयता को लेकर बेहद हैरानी हो रही थी ।
अगर अघोरियों की तांत्रिक मांत्रिक आदि शक्ति को नजरअन्दाज कर दिया जाय, तो वे भी अन्य आम इंसानों की तरह ही होते हैं । और वे कोई आसमान से भी नहीं टपकते । बल्कि स्त्री पुरुष के साधारण सम्भोग से ही पैदा होते हैं । नंगे होकर, गर्म तेल चुपङ कर, बदन पर चिता आदि की राख मल लेने, और जटाजूट बढ़ा लेने से कोई आदमी शक्तिशाली नहीं हो जाता । उसका बाह्य रूप डरावना अवश्य हो जाता है । पर अन्दर से वह एक साधारण इंसान ही होता है ।
अब क्योंकि एक आम आदमी इस तरह के माहौल का, इस तरह की तांत्रिक मांत्रिक गतिविधियों का अभ्यस्त नहीं होता । इसलिये वो इन्हें देखकर अक्सर भयभीत हो जाता है । और ये मिट्टी के शेर इसी बात के अभ्यस्त भी हो चुके होते हैं कि प्रत्येक आदमी इन्हें देखकर न सिर्फ़ भयभीत हो, बल्कि दन्डवत भी करे । लेकिन यहाँ ठीक उल्टा ही हो रहा था, और शायद उनके जीवन में उन्हें पहले कभी अनुभव नहीं हुआ था । इसलिये वे अचम्भित से थे ।
क्योंकि अपनी फ़क्कङ और मस्त जिन्दगी में रात को कच्ची शराब पीकर, बीसियों जंगली मुर्गा मुर्गी तीतर बटेर आदि को उमेठ कर मार डालने वाले, फ़िर उनको आग पर भूनकर उनकी हड्डियां मांस आदि चूसकर ‘हू हुल्ला’ जैसा हुङदंग करने वाले, वे नंगधङंग अघोरी अक्सर ही उन्मुक्त उन्मादी कामवासना का खेल खेलते थे, और जैसे हर बंधन से निरबंध थे ।
पर आज जैसे पूरा मामला ही बदल गया था, और वे अपनी बाईयों के सामने खुद को बेइज्जत महसूस कर रहे थे, और उन चारो को तुरन्त मार डालना चाहते थे । ताकि दो कोमलांगियों और दो हट्टे कट्टे पुरुषों का मांस खाकर वे अपने आपको त्रप्त कर सकें, और फ़िर जश्न मनायें ।
उसने एक सिगरेट सुलगायी, और फ़िल्मी स्टायल में उंगलियों में रिवाल्वर घुमाता हुआ उनके सामने टहलता हुआ उनके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा । उसके मना करने के बाद भी नतालिया और सवेटा स्पेशियो से बाहर निकल आयी । पर रतीराम वहीं बैठा रहा ।
शायद उसे अपनी जान कुछ ज्यादा ही प्यारी थी ।
अघोरवासा का यह मुख्य स्थान लगभग छह बीघा लम्बे चौङे फ़ील्ड के रूप में था । जिसमें स्थान स्थान पर कमरे और गुफ़ायें आदि बनी हुयी थी । जगह जगह छोटी छोटी होलियों जैसे अलाव बने हुये थे, और दस बारह कुत्ते, कुछ सुअर, मुर्गे आदि पक्षियों के दङबे भी वहाँ थे । फ़ील्ड के एक साइड में गंगा नहर कुछ कुछ गोलाई के आकार में बलखाती हुयी सी निकल जाती थी ।
वह टहलते हुये कुछ कुछ आशंकित सा अगले पलों के बारे में सोच रहा था । दरअसल कोई भी बखेङा खङा करके, पंगा करके, यदि वह हीरोगीरी का रुतबा जमाने में कामयाब भी हो जाता, तो इससे कोई फ़ायदा होने के बजाय, उल्टा उसे नुकसान ही होना था । इसलिये वह अघोरियों के उस झुंड में किसी परिचित चेहरे को ढूंढ़ने की कोशिश कर रहा था कि तभी दौङकर आते हुये भौंकते कुत्तों ने उसका काम आसान कर दिया ।
नतालिया और सवेटा चीखकर गाङी में चढ़ गयीं ।
पर वह कुत्तों को देखकर अजीब से अन्दाज में मुस्कराया ।
यानी आधा किला फ़तह ।
फ़िर वही हुआ ।
कुत्ते पहले तो उस पर भौंके । फ़िर उनमें से कुछ कुत्ते पास आकर कूंकूं करते हुये उसके पैर चाटने लगे । जाहिर था, कुछ पुराने कुत्तों ने उसे पहचान लिया था । अघोरियों का दल ये देखकर आश्चर्यचकित रह गया । तभी उसे थोङी राहत और मिली । जब धन्ना और सुखवासी अघोरियों के उस झुंड से निकल कर उसके पास आये, और दुआ सलाम करने लगे ।
धन्ना और सुखवासी सात साल से अघोरपंथ में शामिल हुये थे, और अभी उन्हें सिद्धि आदि में कोई उपलब्धि नहीं हुयी थी । जब वह पिछली बार यहाँ आया था, तब उसकी मुलाकात उनसे हुयी थी । और उस समय यहाँ का मुख्य महन्त मोरध्वज बाबा था । धन्ना ने बताया कि मोरध्वज बाबा चम्बा की तरफ़ चला गया था, और इस समय यहाँ की गद्दी मुंडास्वामी संभाले हुये था ।
मुंडा स्वामी उस समय धूनी पर बैठा हुआ था ।
उन्हें आपस में बातें करते हुये देखकर नतालिया और सवेटा भी उसके पास आ गयी थीं । और आक्रमण करने को लगभग तैयार अघोरी भी कुछ समय के लिये रुककर हैरत से यह नजारा देख रहे थे ।
सुखवासी ने वापस अघोरियों के झुंड के पास जाकर उन्हें बताया कि वह यहाँ का पुराना वाकिफ़ हैऔर मोरध्वज का जानकार है । इसे सुनकर अघोरियों के अस्त्र शस्त्र तो नीचे झुक गये । पर वे अभी भी बदले और अपमान की आग में जल रहे थे ।
धन्ना ने जोर देकर कहा कि वह द्वैत का साधक है, और तुम्हारी अघोर विद्या उसके आगे काम नहीं करेगी । इस बात ने उन पर गहरा असर तो किया । पर उसका साधुओं से अलग आधुनिक स्टायल देखकर उनका दिल ये मानने को कतई तैयार नहीं था कि कोई साधु ऐसा भी हो सकता है ।
तभी मुंडास्वामी धूनी पर से उठकर गुफ़ा से बाहर आया ।
और एक विशाल चबूतरे पर पंचायत होने लगी । धन्ना और सुखवासी उसका प्रतिनिधित्व कर रहे थे । फ़िर एक घन्टे की लम्बी बातचीत के बाद सुलह समझौता हो गया । पर मुंडा का अहंकार ये मानने को कतई तैयार न था कि मनोहर एक अच्छा और उसकी तुलना में बङा साधक हो सकता है । दूसरे उसकी नजरें साफ़ साफ़ बता रही थी कि वो नतालिया और सवेटा के प्रति क्या सोच रहा है? वास्तव में यदि उसके पास पिस्तौल और अलौकिक शक्ति न होती, तो धन्ना के कहने के बाबजूद भी वे दोनों लङकियों पर टूट पङते ।
लेकिन इस सबके बाद भी अपने अहं से मजबूर मुंडा ने तीन बार चुपचाप शक्तिशाली मन्त्र उस पर चलाने की कोशिश की । जो उसने पलक झपकते ही निष्क्रिय कर दिये । तब मुंडा के दिल में उसके लिये स्वतः आदर और दोस्ताना जाग उठा । दरअसल अब वह उससे कुछ अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति में सहायता हेतु इच्छुक था ।
रतीराम भी भय छोङकर बाहर निकल आया, और चोर निगाहों से लगभग नग्न सी अघोरिनों को देखने लगा । मनोहर ने उसे स्पेशियो में रखी देशी शराब का बङा थैला बाहर लाने को कहा, और फ़िर शराब के पाउच जमीन पर फ़ैला दिये ।
इसके साथ ही वहाँ दोस्ताना माहौल में जश्न शुरू हो गया ।
और कुछ ही देर में नशे में लङखङाते हुये अघोरी उन्मुक्त हो उठे ।
वे मुर्गा तीतर आदि पक्षियों को पकङ कर हवा में उछालते, और जीवित अवस्था में ही उसके पंख आदि नोचते । फ़िर अघोरी अघोरिनें उसको बाल की तरह एक दूसरे की तरफ़ उछाल कर वालीबाल जैसा खेल खेलते । इसके बाद पक्षी को घायल अवस्था में ही जलती आग पर लटका देते ।
निर्दोष और असहाय पक्षियों का करुणक्रन्दन सुनकर उसे इतना गुस्सा आ रहा था कि एक एक गोली इन सबके सीने में उतार दे । पर वह कहाँ कहाँ और कितनों को मार सकता था । इस अखिल सृष्टि में ऐसी लीला न जाने कितने अनगिनत स्थानों पर हो रही थी ।
उसे एक दोहा याद हो आया -
दया कौन पर कीजिये, निर्दय कासो होय।
साई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय॥
अघोरी भले ही अब उससे डर गये थे, और सहमे हुये थे । पर जाने क्यों उसे लग रहा था कि उसके सामने से हटते ही वे नतालिया और सवेटा के कपङे चीर फ़ाङकर अलग कर देंगे । लेकिन इस सबसे बेखबर वे दोनों अपना अपना कैमरा संभाले तत्परता से काम कर रही थी । पक्षियों का भुना मांस नोचते, और शराब के घूंट भरते हुये वे अघोरी अब उन्मुक्त हो उठे, और पश्चिमी देशों की किसी हैलोवीन पार्टी की तरह सेक्स बर्ताव करने लगे ।
फ़िर कुछ देर की उनकी शूटिंग के बाद, चारो पर्यटक मुंडास्वामी और छह अन्य अघोरियों के साथ एकान्त में एक अलाव के सामने बैठ गये, और उनका इंटरव्यू लेने लगे । मनोहर नतालिया के प्रश्न ट्रांसलेट करता हुआ दुभाषिये का काम कर रहा था । रतीराम निर्लिप्त सा बैठा हुआ उत्सुकता से अघोरियों की कामक्रीङा को देख रहा था ।
ये पूरा अघोरी मिशन कवरेज होते होते सुबह के पाँच बज गये ।
और अब अधिकांश अघोरी फ़ील्ड में ही निढाल होकर सो रहे थे ।
मुंडा की एक पर्सनल साध्वी उन लोगों के लिये चाय बना लायी ।
फ़िर ठीक छह बजे वे पूरा पैकअप करके स्पेशियो में बैठ गये ।
मुंडा, साध्वी, और अन्य कई अघोरियों ने बाकायदा विदा करते हुये उन सबका अभिवादन किया, फ़िर चलते चलते मुंडा ने कई बार आग्रह किया कि वह जल्दी ही फ़िर से झूलीखार आये, और खासतौर पर प्रसून जी को साथ लेकर आये, या फ़िर वो ही कभी उससे मिलने उसके घर आयेगा ।
गाङी वापस शहर की ओर जाने लगी ।
नतालिया और सवेटा अपनी जिंदगी की इस रोमांचक रात को लेकर बहुत एक्साइटेड थी, और रतीराम की परवाह किये बिना उसे बारबार किस कर रही थीं । जिसे देखकर वह काफ़ी उत्तेजित सा हो रहा था । उसने प्रसून के बारे में सोचते हुये एक सिगरेट सुलगायी, और हौले हौले कश लगाने लगा ।
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समाप्त

शनिवार, अगस्त 21, 2010

पांच प्रेत



पूर्वकाल में संतप्तक नाम का एक ब्राह्मण था ।

जिसने तपस्या से अपने को पापरहित कर लिया था । संसार को असार मानते हुये वह मुनियों की भांति आचार करता हुआ वन में रहता था । किसी समय इस ब्राह्मण ने तीर्थयात्रा को लक्ष्य बनाकर यात्रा की किन्तु संस्कारों के प्रभाव से वह मार्ग भूल गया ।

दोपहर हो गयी ।

स्नान की इच्छा से वह किसी सरोवर आदि की तलाश करने लगा । उसी समय उसे बेहद घना वन दिखाई दिया । जिसमें वृक्षों लताओं आदि की अधिकता से पक्षियों के लिये भी मार्ग नहीं था । वह वन हिंसक जीव जन्तु पशुओं और राक्षस और पिशाचों से भरा पङा था ।

ब्राह्मण उस घनघोर डरावने वन को देखकर भयभीत हो उठा ।

उसे रास्ते का ज्ञान नहीं था, अतः वह आगे चल पङा । वह कुछ ही कदम चला था कि सामने बरगद के वृक्ष में बंधा एक शव उसे लटकता हुआ दिखाई दिया । जिसे पांच भयानक प्रेत खा रहे थे । उन प्रेतों के शरीर में हड्डी नाङियां और चमढ़ा ही शेष था । उनका पेट पीठ में धंसा हुआ था । ताजे शव के मस्तिष्क का गूदा चाव से खाने वाले, और शव की हड्डियों की गांठ तोङने वाले, बङे बङे दांत वाले उन भयानक प्रेतों को देखकर घबरा कर ब्राह्मण रुक गया ।

प्रेत उसे देखकर दौङ पङे, और उन्होंने ब्राह्मण को पकङ लिया ।

और इसे मैं खाऊंगा, ऐसा कहते हुये वे उसे लेकर आकाश में चले गये । किन्तु बरगद पर लटके शव के शेष मांस को खाने की भी उनकी इच्छा थी । प्रेत लटके हुये शव के पास आये, और उधङे हुये से उस शव को पैरों में बांधकर फ़िर से आकाश में उङ गये ।

इस तरह वह भयभीत ब्राह्मण भगवान को याद करने लगा ।

उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान वहाँ गुप्त रूप से पहुँच गये, और प्रेतों द्वारा ब्राह्मण को आश्चर्य से ले जाते हुये देखते चुपचाप उनके पीछे चलने लगे । सुमेर पर्वत के पास पहुँचकर भगवान श्रीकृष्ण को मणिभद्र नाम का यक्ष मिला ।

भगवान ने इशारे से उसे बुलाया, और कहा कि तुम इन प्रेतों से युद्ध कर इन्हें मारकर शव को अपने अधिकार में कर लो ।

इसके बाद मणिभद्र ने प्रेतों को दुख पहुँचाने वाले भयंकर प्रेत का रूप धारण कर उनसे भयंकर युद्ध किया, और उन्हें परास्त कर शव छीन लिया ।

प्रेतों ने ब्राह्मण को पारियात्र पर्वत पर उतारा, और वापस मणिभद्र की और आये, किन्तु वह अदृश्य हो गया । तब हताश होकर वे वापस पर्वत पर पहुँचे, और ब्राह्मण को मारने लगे ।

ज्यों ही उन्होंने ब्राह्मण को मारा, तो भगवान के वहाँ होने से और ब्राह्मण के प्रभाव से तत्काल उनके पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी । तब उन प्रेतों ने ब्राह्मण की प्रदक्षिणा की, और क्षमा मांगी ।
ब्राह्मण को बेहद आश्चर्य हुआ ।

उसने कहा - आप लोग कौन हैं, और अचानक इस बदले व्यवहार का क्या कारण है?

प्रेतों ने कहा कि - हम सब प्रेत हैं, जो आपके दर्शन से निष्पाप हो गये । हमारे नाम पर्युषित, सूचीमुख, शीघ्रग, रोधक और लेखक हैं ।

ब्राह्मण ने कहा - तुम्हारे नाम बङे अजीब हैं, मुझे इसका रहस्य बताओ ।

तब पहले पर्युषित बोला - मैंने श्राद्ध के समय ब्राह्मण का न्यौता किया था, पर वो ब्राह्मण देर से पहुँचा । तब मैंने बिना श्राद्ध किये हुये ही भूख के कारण उस श्राद्ध हेतु बने भोजन को खा लिया, और देर से पहुँचे ब्राह्मण को पर्युषित (बासी) भोजन खिला दिया । इसी पाप से मुझे दुष्ट योनि की प्राप्ति हुयी, और पर्युषित भोजन देने के कारण मेरा यह नाम पङा ।

सूचीमुख बोला - किसी समय एक ब्राह्मणी अपने पांच वर्षीय एकलौते पुत्र के साथ तीर्थस्नान हेतु भद्रवट गयी । मैं उस समय क्षत्रिय था । मैंने राहजनी करते हुये उस लङके के सिर में घूंसा मारा । और दोनों के वस्त्र और खाने का सामान छीन लिया ।

प्यास से व्याकुल जब वह लङका माता से लेकर जल पीने लगा, तो मैंने उसका जलपात्र छीनकर वह थोङा सा ही शेष जल स्वयं सारा पी लिया । इस तरह डरे और प्यास से व्याकुल बालक की कुछ ही देर में मृत्यु हो गयी । उसकी माँ ने भी कुंएं में कूदकर जान दे दी । इस पाप से में प्रेत बना ।

पर्वत जैसा शरीर होने पर भी मेरा मुख सुई की नोक के समान है । यद्यपि मैं खाने योग्य पदार्थ प्राप्त कर लेता हूँ । पर इस सुई के छेद जैसे मुख से उसको खाने में असमर्थ हूँ । भूख से व्याकुल बालक का भोजन छीनकर मैंने उसका मुँह बन्द किया । इससे मेरा मुँह सुई के नोक जैसा हो गया । अतः मैं सूचीमुख के नाम से प्रसिद्ध हूँ ।

शीघ्रग बोला - मैं एक धनवान वैश्य था । अपने मित्र के साथ व्यापार करने दूसरे देश गया । मेरे मित्र के पास बहुत धन था । मेरे मन में उस धन के लिये लोभ आ गया । मेरा धन समाप्त हो चुका था । हम दोनों नाव से एक नदी को पार कर रहे थे । मेरा मित्र थककर सो गया । लालच से मेरी बुद्धि क्रूर हो उठी थी । अतः मैंने अपने मित्र को नदी में धकेल दिया । इस बात को कोई न जान सका, और मित्र के हीरे जवाहरात सोना आदि लेकर मैं अपने देश लौट आया ।

सारा सामान अपने घर में रखकर मैंने मित्र की पत्नी से जाकर कहा कि - मार्ग में डाकुओं ने मित्र को मारकर सब सामान छीन लिया । मैं भाग आया हूँ ।

तब उस दुखी स्त्री ने सबकी ममता त्याग कर अपने को अग्नि की भेंट कर दिया ।
मैं खुश होकर लौट आया, और दीर्घकाल तक उस धन का उपभोग किया ।
मित्र को नदी में फ़ेंककर शीघ्र घर लौट आने के कारण मुझे प्रेतयोनि मिली, और मेरा नाम शीघ्रग हुआ ।

रोधक बोला - मैं शूद्र जाति का था । राजा से मुझे उपहार में बङे बङे सौ गांव मिले थे । मेरे परिवार में वृद्ध माता पिता और एक छोटा सगा भाई था । लोभ से मैंने भाई को अलग कर दिया । जिससे वह भोजन वस्त्र की कमी से दुखी रहने लगा ।
उसे दुखी देखकर मेरे माता पिता मुझसे छिपाकर उसकी सहायता कर देते थे । जब मुझे यह बात पता चली, तो क्रोधित होकर मैंने माता पिता को जंजीरों से बांधकर एक सूने घर में डाल दिया । जहाँ कुछ दिन बाद वे जहर खाकर मर गये ।
माता पिता के मर जाने के बाद मेरा भाई भी भूख से व्याकुल इधर उधर भटकता हुआ मर गया । इस पाप से मुझे यह प्रेतयोनि मिली । अपने माता पिता को बन्दी बनाने के कारण मेरा नाम रोधक पङा ।

लेखक बोला - मैं उज्जैन का ब्राह्मण था, और मन्दिर में पुजारी था । उस मन्दिर में सोने की बनी और रत्न से जङी हुयी बहुत सी मूर्तियां थी । उन रत्नों को देखकर मेरे मन में पाप आ गया, और मैंने नुकीले लोहे से मूर्ति के नेत्रों से रत्न निकाल लिये ।

क्षतविक्षत और नेत्रहीन मूर्ति देख राजा क्रोध से तमतमा उठा, और उसने प्रतिज्ञा की कि जिसने भी यह चोरी की है, वह निश्चित ही मेरे द्वारा मारा जायेगा ।

यह सुनकर मैंने रात में चुपके से राजा के महल में जाकर तलवार से उसका सिर काट दिया । इसके बाद चुरायी गयी मणि और सोने के साथ मैं रात में ही दूसरे स्थान को चल दिया । जहाँ रास्ते में जंगल में बाघ द्वारा मारा गया । नुकीले लोहे से प्रतिमा को छेदने और काटने का कार्य करने के कारण मैं नरक भोगने के बाद लेखक नाम का प्रेत हुआ ।

ब्राह्मण ने कहा - ओह, अब मैं समझा, लेकिन मुझे तुम्हारे आचरण और आहार को लेकर जिज्ञासा है ।

तब प्रेतों ने उत्तर दिया - जिसके घर में श्राद्ध, तर्पण, भक्ति, पूजा नहीं होते, अशौच रहता है । हम उसके शरीर से मांस और रक्त बलात अपह्त कर उसे पीङित करते हैं । मांस खाना, रक्त पीना ही हमारा आचरण है ।
इसके अतिरिक्त हम निंदनीय वमन, विष्ठा, कीचङ, कफ़, मूत्र, आंसुओं के साथ निकलने वाला मल आदि आहार करते हैं । हम सब अज्ञानी, तामसी और मन्दबुद्धि हैं ।

इसी वार्तालाप के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिया ।
ब्राह्मण और प्रेतों ने उन्हें प्रणाम किया ।
ब्राह्मण ने उनसे प्रेतों के उद्धार हेतु प्रार्थना की ।
श्रीकृष्ण ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुये ब्राह्मण और प्रेतों का उद्धार करते हुये उसी समय उन्हें अपने लोक पहुँचा दिया ।

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।