रविवार, मई 30, 2010

नगरकालका



रेनू की उस डौल सी बच्ची का नाम डौली था। और रेनू उस बच्ची को लेकर ही परेशान थी।
दरअसल पिछले छह महीने से डौली एक अजीब सा व्यवहार करती थी। वह आम बच्चों की तरह खेलने कूदने के बजाय यन्त्रवत उस काली चिङिया को देखती रहती थी, जो हर समय उसके इर्द गिर्द ही रहती थी।
इसलिये रेनू एक तरह से उस रहस्यमय काली चिङिया से बेहद आतंकित थी। और उसने कई बार उस चिङिया को भगाने और मारने की भी कोशिश की थी, पर सफ़ल नहीं हो पायी थी। फ़िर किसी के कहने पर उसने एक-दो ओझा तांत्रिक से भी सम्पर्क करके इस समस्या से निजात पाने की कोशिश की थी।
लेकिन बाद में स्वयं रेनू को लगा कि ओझाओं के पास जाने से उसकी समस्या और भी खराब हो गयी थी। बच्ची पहले की अपेक्षा अधिक कमजोर और सुस्त रहने लगी थी।
फ़िर रेनू ने आसपास खोजी निगाहों से देखते हुये एक तरफ़ इशारा करते हुये बताया कि यही वो दुष्ट चिङिया है, जिसने मेरा जीना हराम कर रखा है। मेरी बच्ची कहीं भी क्यों न जाय, ये साये की तरह हमेशा साथ ही रहती है, जैसे कि अभी अभी यहाँ भी है।
कहते कहते उसकी बङी बङी काली आँखों से आँसू बहने लगे।
प्रसून ने रेनू से ध्यान हटाकर चिङिया को देखा।
चिङिया निकट के ही एक पेङ की डाल पर बैठी थी, और आमतौर पर जंगलों में पायी जाने वाली काली चिङिया की नस्ल की थी। 
डौली यन्त्रचालित सी चिङिया की तरफ़ घूम गयी थी, और उसे ही देख रही थी।
प्रसून ने एक कंकङ उछाल कर चिङिया की तरफ़ फ़ेंका, पर चिङिया अपने स्थान से हिली तक नहीं । निश्चय ही ये एक गम्भीर मामला था, और उसके गणित के अनुसार तो एक मासूम बच्चे की जिंदगी ही दाव पर लगी थी।
वो चिङिया दरअसल चिङिया थी ही नहीं, बल्कि किसी चिङिया के मृत पिण्ड को उपयोग करने वाली कोई प्रेतात्मा थी, और जिसका किसी प्रकार से रेनू या डौली से कोई भावनात्मक या बदला लेने का उद्देश्य लगता था।
अगर प्रसून पहले से ही मरी हुयी उस चिङिया को मार भी देता, तो क्या फ़र्क पङना था। प्रेतात्मा फ़िर किसी मृत पिंड का इस्तेमाल कर लेती, और समस्या ज्यों की त्यों ही रहती।
उसने उसी समय प्रेतात्मा से सम्पर्क की कोशिश की, पर सफ़लता नहीं मिली।
दुबारा अधिक प्रयास करने पर चिङिया थोङी सी विचलित लगी।
फ़िर उसने आसमान की तरफ़ चोंच उठाकर इस तरह खोली बन्द की।
मानो पानी की बूँद पी रही हो।
उसका ये पहले से बङा प्रयास भी विफ़ल हो गया।
- नगरकालका। उसके मुँह से स्वत ही निकला।
- क्या? रेनू अचकचा कर बोली।
- कुछ नहीं। प्लीज कुछ अपने बारे में, कुछ अपने पति के बारे में बताईये, और सब कुछ साफ़ साफ़ बताईये। कुछ भी छुपाने की चेष्टा ना करें।


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शुक्रवार, मई 21, 2010

गंगा का रहस्यमय दिव्य कंगन..ganga ka rahasymay divy kangan


रैदास जी का नाम आत्मग्यान के उच्चकोटि के संत के रूप में इतिहास में दर्ज है ये कबीर के समकालीन थे और दिखावे के लिये उनके गुरुभाई भी थे पर वास्तविकता कुछ और ही थी ये कबीर जी को हमेशा " कबीर साहब " के आदरपूर्ण सम्बोधन से पुकारते थे और उन्हे गुरु के समान ही मानते थे । दुनिया की नजरों में कबीर और रैदास तथा कुछ अन्य साधकों की टोली रामानन्द के शिष्य के रूप में जानी जाती थी..पर हकीकत एकदम अलग ही थी । एक बार रामानन्द को भगवान ने कबीर की वास्तविकता दिखायी उससे प्रभावित होकर रामानन्द ने कबीर को साधक मन्डली का शिरमौर नियुक्त कर दिया..आगे चलकर इन्ही रामानन्द ने
धर्मदास के रूप में जन्म लिया तब कबीर ने इन्हें वास्तविक सच याने आत्मग्यान की सही शिक्षा दी और जन्म मरण के आवागमन से मुक्त कराया..लेकिन मैं बात रैदास जी की कर रहा था..बहुत कम लोग इस बात को जानते है कि कृष्ण भक्त के रूप में प्रसिद्ध परमभक्त मीराबाई संत रैदास की प्रिय और उच्चकोटि की साधक शिष्या थी । मीरा ने सुरतीशब्द साधना की थी और सारशब्द का ग्यान प्राप्त किया था " नाम लेयु ओ नाम न होय , सभी सयाने लेय । मीरा
सुत जायो नहीं , शिष्य न मुँड्यो कोय ।।रैदास जी भले ही दलित कुल में पैदा हुये थे पर आत्मग्यानी संत होने के कारण राजा महाराजा उनके आगे सर झुकाकर प्रणाम करते थे और उनके शिष्य भी थे । जो मन चंगा तो कठौती में गंगा..ये प्रसिद्ध कहावत रैदास जी के द्वारा ही प्रचलन में आयी थी इसके पीछे बङी ही रोचक कहानी है जो मात्र किवदंती न होकर सत्य घटना है । अविश्वसनीय सी लगने वाली इस घटना पर वे लोग सहज ही विश्वास कर सकते हैं जो संतो की महिमा से थोङे भी परिचित हैं । हाँ जनसामान्य को ऐसी घटनाओं पर विश्वास दिलाना कठिन होता है क्योंकि वे अद्रश्य और अलौकिकग्यान की a b c d भी नहीं जानते हैं । रैदास जी प्राय घर पर ही रहकर पनही ( जूते ) बनाने आदि का कार्य करते थे । कबीर की तरह इनके घर पर भी ज्यादातर साधुसंतो का आवागमन लगा रहता था इस वजह से सीमित आय होने के कारण ये घर का खर्च मुश्किल से चला पाते थे और इस हेतु उन्हें अधिक समय तक कार्य करना होता था । रैदास जी जूते बनाते और भजन ( एक विशेष प्रकार का ध्यान जिसको कार्य करते हुये आसानी से किया जा सकता है ) में पूरा पूरा मन लगाते थे " भाय कुभाय अनख आलस हू , नाम जपत मंगल सब दिस हू । सबहि सुलभ सब दिन सब देसा , सेवत सादर शमन कलेशा ।
आज की तरह उन दिनों भी लोगों में पाप धोने के लिये गंगा स्नान का बङा चाव रहता था इस हेतु वे चलते समय रैदास से भी गंगा स्नान करने के लिये चलने का आग्रह करते थे पर रैदास जी आत्मग्यानी होने के कारण भलीभाँति जानते थे कि वास्तविक गंगा स्नान क्या है और कैसे होता है ? ये बात आपको बेहद अटपटी लगेगी पर आप कुछ ऐसे छोटे महत्व के ही धर्मग्रन्थों में इसका प्रमाण देख सकते हैं जिनमें नाङीशोधन , प्राणायाम योगासन या कुन्डलिनी चक्रों के बारे में बताया गया हो । आज भारत से आत्मग्यान की परम्परा प्राय लुप्त सी हो जाने के कारण ये कुन्डलिनी आदि ग्यान जाने कितना महान मालूम होता है पर न तो ये आत्मग्यान है और न ही ज्यादा महान है । आत्मग्यान की किताब में यह एक प्रस्तावना जैसी हैसियत ही रखता है..तो भी जब आप ऐसे ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो उसमें इडा पिंगला सुषमना आदि नाङियों का वर्णन मिलेगा..यही वास्तविक गंगा जमुना सरस्वती है नाक छिद्र से इनकी धाराओं का प्रवाहन होता है और भ्रूमध्य में इनके मिलन को वास्तविक कुम्भस्नान कहते हैं ..हाँलाकि इसका ये अर्थ नहीं निकालना चाहिये कि धरती पर बहने वाली गंगा का कोई महत्व ही नहीं है पर संत जिस गंगा में स्नान करते है वो हिमालय की न होकर यही है...इस हेतु रैदास जी बहस से बचने के लिये प्राय बहाना बना देते कि आज काम अधिक है इसलिये मैं नहीं जा पाऊँगा..
पर एक दिन रैदास जी को मौज आ ही गयी और उसी मौज में जब गंगास्नान जाने वालों ने एक तरह से उन्हें चिङाते हुये स्नान के लिये चलने का आग्रह किया तो रैदास जी बोले कि स्नान करने तो नहीं जा पाऊँगा लेकिन ये लो दो पैसे..मेरा परसाद लेकर गंगा में अवश्य अर्पित कर देना...परचित लोगों ने सोचा कि चलो कुछ तो अक्ल आयी ? तभी रैदास जी ने कहा कि सुनो गंगा ने परसाद स्वीकार किया या नहीं ये कैसे पता चलेगा इसके लिये तुम गंगा से कहना कि रैदास ने परसाद भेजा है और बदले में तुम क्या देती हो..लोगों ने सोचा कि रैदास की बुद्धि खराब हो गयी है । हम सालों से स्नान कर रहें है गंगा ने आज तक हमें कुछ नहीं दिया तो इसको क्या देगी...उनके संशय और उपहास मुद्रा को समझते हुये रैदास ने कहा कि तुम इतनी बात कह देना आगे गंगा की मरजी कि वो क्या करती है ? लोगों ने मन में सोचा कि इसने अपना उपहास कराने का मौका स्वयँ ही दे दिया । खैर वे गंगा पहुँचे स्नान किया और रैदास की बात याद आते ही उन्हें हँसी आ गयी फ़िर भी उन्होनें परसाद का दोना गंगा की तरफ़ करते हुये कहा कि " गंगा मैया ये परसाद रैदास ने आपके लिये भेजा है.." तुरन्त गंगा की धारा में से देवी गंगा का हाथ प्रकट हुआ और बेहद श्रद्धा से उसने प्रसाद को ग्रहण किया...हाँ कुछ गुप्त वजहों से उन लोगों को गंगा की शेष आकृति दिखायी न दी..इसके बाद उस हाथ में एक अनूठी आभा वाला दिव्य कंगन प्रकट हुआ और साथ ही गंगा की मधुर आवाज सुनायी दी " हे भक्तजन ये मेरी तरफ़ से प्रभु ( रैदास ) को दे देना " उन लोगों की " काटो तो खून नहीं " जैसी स्थिति हो गयी पर प्रत्यक्ष को कैसे झुठला सकते थे । हक्की बक्की अवस्था में उन्होनें कंगन लाकर रैदास को दे दिया..दरअसल कुछ कहने के लिये उनके पास शब्द ही नहीं थे...खैर रैदास ने वो कंगन अपनी पत्नी को दे दिया जिसे उसने बक्से में डाल दिया..कुछ समय के अंतराल के बाद रैदास को पैसों की समस्या आ गयी पर कंगन की उन्हें याद तक नहीं थी..तब पत्नी के द्वारा याद दिलाने पर रैदास ने पत्नी से कह दिया कि वो कंगन को किसी सुनार के यहाँ बेच दे । इस तरह ये दिव्य कंगन रैदास के बक्से से निकलकर सुनार की दुकान पर पहुँच गया जिसे उसने बङे जतन से सजाकर रख दिया..सुनार उस कंगन को देखकर भौंचक्का था..कंगन एक अनूठी आभा से हमेशा दमकता रहता था और इस तरह का सोना सुनार ने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था..यही नहीं उसने कंगन के डिजायन का नकल करते हुये दूसरा कंगन बनाने की लाख चेष्टा की पर कभी सफ़ल नहीं हुआ । उसे इस बात की भी हैरत थी कि रैदास के पास ऐसा कंगन कहाँ से आया ?
खैर साहब..कुछ ही दिनों में राजकुमारी सुनार की दुकान पर आभूषण खरीदने आयी और पहली ही निगाह में उसने वो दिव्य कंगन पसंद कर लिया..और सुनार से उसका दूसरा जोङा निकालने को कहा ..सुनार की साँस मानो गले में ही अटक गयी..उसने राजकुमारी को बहुतेरा समझाया कि इस तरह का एक ही कंगन उसके पास है पर कंगन के अति आकर्षण से मोहित राजकुमारी उसकी कोई बात सुनने को तैयार न हुयी..और पन्द्रह दिन के अन्दर दूसरा कंगन राजमहल में पहुँचा देने का शाही आदेश करके चली गयी..वह सुनार भलीभाँति इस आदेश का मतलब जानता था..यदि राजकुमारी का मूड बिगङ गया तो राजाग्या उसे फ़ाँसी के फ़ंदे पर पहुँचा दे ये भी कोई ज्यादा बङी बात नहीं थी..सो वह अपना तमाम धन्धापानी छोङकर दूसरे कंगन की तलाश में लग गया और तलाश की मंजिले तय करता हुआ रैदास जी के पास पहुँच गया । उसने रैदास जी के सामने अपनी परेशानी रखी । रैदास जी ने कहा कि वो कंगन उन्हें इस इस तरह से देवी गंगा ने दिया है और उस तरह का दूसरा कंगन भला कैसे मिल सकता है । सुनार उनके पैरों पर गिर पङा और बोला कि रैदास जी किसी तरह मेरी जान इस जंजाल से छुटा दो । आपकी कृपा से मेरा जीवन बच सकता है...आप गंगा के पास चलिये और जिस तरह से उन्होंने आपको ये कंगन दिया है उसी तरह से गंगा आपको इसका दूसरा कंगन भी दे देगीं । रैदास जी उसकी परेशानी पर मुस्कराये और बोले कितुम्हारी बात ठीक है लेकिन इसके लिये गंगा जाने की क्या जरूरत है..सुनार भौंचक्का सा उनका मुँह देखने लगा..रैदास ने उसकी परेशानी दूर करते हुये कहा कि अरे भाई " जो मन चंगा तो कठौते में गंगा " और चमङा भिगोने वाले कठौते में हाथ डालकर दूसरा कंगन निकालकर दे दिया..बेहद आश्चर्यचकित सुनार उनके पैरों में गिर पङा ।

रविवार, मई 16, 2010

इस हमाम में सब नंगे हैं.. ?

मैं सदियों से दवी कुचली शोषित नारी के उत्थान का पक्षधर हमेशा ही रहा हूँ लेकिन
जिस तरह का नारी उत्थान आज देखने को मिल रहा है . मैं उसका हिमायती हरगिज
नही हूँ स्त्री हो या पुरुष ये समाज के नियत और धार्मिक मर्यादाओं से अधिक शोभा पाते
हैं और मर्यादा च्युत होने पर हम ही लोग उन्हें धिक्कारते भी हैं . ऐसी स्थिति में क्या ये नहीं लगता कि कहीं न कहीं कोई त्रुटि अवश्य है..आपने उत्तर प्रदेश में प्रचलित एक
कहावत शायद सुनी हो " रांड रंडापा तब काटे जब रडुआ काटन देंय " इसका अर्थ जो
लोग न समझ पाय उनके लिये अर्थ बता रहा हूँ..कोई औरत जब विधवा हो जाती है तो
उसके लिये रांड शब्द का प्रयोग करते हैं..इस कहाबत का आशय यही है कि यदि विधवा
औरत अपने मृतक पति की याद के सहारे ही शालीनता से अपना जीवन काटना चाहे
तो आसपास के रंडवे या अन्य कामभ्रष्ट लोग उसको खाली पङे प्लाट की तरह कब्जाने की कोशिश करते है और तरह तरह के उपायों से उसकी यौनेच्छा या कामपिपासा भङका ही देते हैं..अंत में वो हथियार डाल देती है और फ़िर खुलकर उन्मुक्त यौन जीवन जीती है
ये नई अवतरित हुयी नगरवधू न सिर्फ़ आसपास की विवाहित और अविवाहित युवतियों के लिये उन्मुक्त यौन सम्बन्धों के प्रेरणा रूपी अध्याय खोल देती है..वरन ये अकेली मछली पूरा तालाब ही गन्दा कर देती हैं..क्योंकि.".जानत सब सबकी.. कहे को किनकी.".इस नियम में हमारा वर्तमान समाज जी रहा है अतः ऐसी नगरवधू समाज से बहिष्कारित होने के बजाय ठाठ से हमारे मुहल्ले में हमारी कालोनी में ही रहती है...हमारे घरों में उसका उठना बैठना होता है..और वह आसानी से अपने विचार हाव भाव हमारे घर की महिलाओं पुरुषों..जवान लङकों में सम्प्रेषण कर पतन के नये अध्याय खोलने में कामयाब हो जाती है .श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि युद्ध के परिणाम अच्छे नहीं होंगे जो सैनिक मारे जायेंगे उनकी पत्नियों के आचरण से वर्णसंकरता पैदा होगी..अब प्रश्न यह है कि विधवा होना किसी औरत का निजी दोष तो नहीं है..और फ़िर दोहरी मानसिकता में जीते समाज के लोग एक तरफ़ तो उसका भरपूर उपयोग करना चाहते हैं दूसरी तरफ़ समाज के तेजी से होते नैतिक पतन पर विचार
गोष्ठियां करते हैं . आजकल तो इस खुली बेशर्मी को भी आधुनिकता का नाम दिया जाता है लेकिन मुझे किसी पुराने कवि की पक्तिंयों का अर्थ याद आता है जिसमें उसने कहा था कि नारी के स्तन आदि यदि कुछ कुछ झलकते हों तो नारी की शोभा कई गुना बङ जाती है..
यानी सौन्दर्य की झलक मर्यादा में हो..तुलसीदास ने भी कहा है कि ..विधुबदनी सब भांति संवारी..सोहे न बसन बिना बरु नारी..यानी औरत कितनी भी खूबसूरत क्यों न हो बस्त्रों के बिना शोभा नहीं पाती..इस सम्बन्ध में विषयांतर करते हुये एक मजेदार मगर बेकार बात आपसे शेयर कर रहा हूँ..अभी बहुत सालों के अंतराल के बाद जब दुबारा लेपटाप लिया तो एक email बना कर सब दोस्तों को सूचना दी कि दुबारा मैदान-ए-जंग में आ गया हूँ ..उफ़ ..तब मुझे नहीं मालूम था कि वे मेरी क्या गत बनाने वाले हैं..मेरे दोस्त जानते हैं कि मैं singal हूँ..सो उन्होनें मेरे email का दुरुपयोग करते हुये कई adult और dating साइटस पर मेरा रजिस्ट्रेशन कर दिया..और अगले दिन से ही रीना, मीना ,रागिनी, निशा आदि के मेसेज आने लगे जिनमें लिखा होता था कि (अरे बेबकूफ़) माउस पर ही उंगलिया घुमाता रहेगा या...?...मैं हैरान ..परेशान..यार मैं इतना पापुलर हूँ कि कुछ ही दिनों में इतनी सुन्दरियां मुझे जान गयी और बङी अजीव अजीव भाषा में "इनवाइट" भी कर रही हैं "विन्क" शब्द का अर्थ भी मुझे इन्ही इंटरनेट देवियों द्वारा ही ग्यात हुआ..अब जैसे ही सुबह email खोलता इन अनेक अनदेखी प्रेमिकाओं के प्रेमपत्रों से मेरा इनबोक्स भरा मिलता ...हद हो गयी यार..लेकिन काजर की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय..मन नहीं माना
सोचा एक बार इनके घर ( सायट पर) जाकर देखते हैं कि ये कौन से अर्थ earth के लोग हैं वहाँ जाकर तो बुद्धी ही घूम गयी साहब..हमसे कहा गया कि दस सदस्य आपको पसन्द करते हैं किससे मिलेंगे ? रीना को चुन लिया..हसरत हुयी कि इसका चाँद सा मुखङा देखते है...लेकिन गजब..वो वास्तव में दूसरे earth की थी हमारे यहाँ जैसा सुन्दरियों का वक्ष होता है ..वैसा तो उसका मुख था..रागिनी तो उससे भी हटकर अलग ग्रह की थी..उसका मुख बिलकुल नितम्ब जैसा था..अन्य मुखों की बात करना हमारी भारतीय परम्परा के अनुकूल नहीं है..
हमारे जैसे मुख वाले मुख बहुत कम देखने को मिले..क्योंकि बहुत दिनों से टी. वी. नही देखा और न्यूजपेपर भी ठीक से नहीं पढ पाया..इसलिये लगा कि nasa ने कोई नया ग्रह खोज ही लिया या udan tastari वाले प्राणियों ने vasundhara पर धावा बोल दिया..सही बात क्या है ये google की नाली में कीवर्ड टायप कर करके जानने की कोशिश कर रहा हूँ .दरअसल कामवासनाओं के अजीव मायाजाल की बहस का कभी भी और कहीं भी कोई अंत नहीं हो सकता मैं अपने दोस्तों में अक्सर इसी बात को लेकर आलोचना का पात्र बन जाता था क्योंकि मेरा मानना था कि अगर तुम दूसरी लङकियों को देखकर सीटी बजाते हो छींटाकसी करते हो तो तुम्हें इस बात के प्रति भी सहनशील होना चाहिये कि दूसरे लङके भी तुम्हारी बहन के साथ यही व्यवहार करेंगे...इस सम्बन्ध में एक बेहद दिलचस्प किस्सा याद आता है..
एक लङका हमारे ग्रुप में नया नया दोस्त बना था और पूरा heman था . हम लोग अक्सर घूमने जाते और बालाओं को देखकर (जिनमें मैं कभी शामिल नहीं होता था दरअसल मेरी जिन्दगी की कहानी ही अलग तरह की है ) छींटाकसी करते थे जिनमें वह लङका भी शामिल होता था..एक दिन हम सब लोग जा रहे थे हमारे काफ़ी आगे एक लङकी जा रही थी सब लोग लङकी पर छींटाकसी करने लगे..उस लङके पर जिसका नाम योगी ( योगेश ) था किसी का ध्यान नहीं था..मैंने देखा वह असमंजस और अजीव पेशोपश में था और चुप था जैसे समझ न पा रहा हो कि क्या करे..तभी एक लङके राहुल ने सारी मर्यादाएं लांघते हुये एक गन्दा कमेंट किया और योगी ने झपटकर उसका कालर पकङते हुये जोरदार मुक्का उसके मुँह पर मारा और दाँत पीसकर बोला stupid..she's my sister..सारे लङकों पर मानों घङों पानी पङ गया किसी को कुछ न सूझा..कि क्या करे और क्या कहे...ये तो अच्छा था कि नेहा (राहुल की बहन) ने कमेंट की कोई परवाह न करते हुये पलटकर नहीं देखा था वरना वो ऐसे लङके की बहन थी
जिसे दादा या don भी कहते हैं और don हमारे साथ ही था इस तरह एक बङी ( मगर आधी ) शरमिंदगी से हम लोग बच गये..और लङकों ने इस गलती के प्रायश्चित स्वरूप बाद में नेहा के पैर छुये..(ताकि राहुल के दिल में कोई मलाल न रहे ये इस बात का भी प्रमाण था कि योगी की बहन उनकी अपनी बहन जैसी ही है)हालांकि नेहा को इस बङी और शर्मनाक घटना का कभी कोई कैसा भी पता न चला .उस दिन से योगी मेरा बहुत आदर करने लगा क्योंकि उसके सामने या आगे पीछे मैं इस तरह के कृत्यों से हमेशा दूर रहता हूँ यह बात वह भली भांति जानता था.. अब चलते चलते एक बात और..एक भारत का संत एक बार विदेश भ्रमण पर गया वहाँ उसने देखा कि एक युवती एक कब्र पर पंखे से हवा कर रही है..पूछने पर उसने बताया कि यह कब्र उसके हसबेंड की है..संत का ह्रदय अत्यंत प्रसन्न हो गया..ओ हो देवी तुम्हारा पतिप्रेम धन्य है..ह्रदय गदगद हो गया तुम्हारे दर्शन पाकर...मैं तो समझता था कि सीता सावित्री जैसी नारियां पवित्र भारतभूमि पर ही हैं...वो ऐसा है स्वामी जी " युवती ने कहा " कि दरअसल भावावेश में मैं अपने मृत पति को वचन दे बैठी कि जब तक उसकी कब्र की मिट्टी नहीं सूख जायेगी ..तब तक मैं दूसरा विवाह न करूँगी...? हमने अच्छा जानकर तुमसे करली क्या दो बात..आपने समझा हो गयी बिन बादल बरसात ये तो..हद कर दी आपने..?

गुरुवार, मई 13, 2010

पिया लाये परायी नारि..चार मूर्ख कवि

आम जिंदगी में तो भगवान को कोसने वालों की कोई कमी है ही नहीं . ब्लाग जगतभी इससे अछूता नहीं है . अगर आप इस बात को ठीक से समझ नहीं पाये हों तो कुछ उदाहरण हैं..मान लीजिये किसी जवान स्त्री का पति..या जवान आदमी की
पत्नी जिनके छोटे छोटे बच्चे भी है..इनमें से कोई एक मर जाता है तो ब्लाग जगत की तरह भगवान के ब्लाग पर लोग अक्सर इस तरह के कमेंट देते हैं ..अरे ईश्वरबङा अन्यायी है..ये भी नहीं देखा कि छोटे बच्चे थे..भरी जवानी में विधवा हुयी..
अब क्या होगा आदि..ये तो अनर्थ ही है..आदि...मेरा अध्ययन ये कहता है कि नीचे पव्लिक की तमाम परेशानियों(भौतिक ) की जिम्मेदार सरकार है..और देहिक और दैविक तमाम परेशानियों का जिम्मेदार भगवान है..भगवान सुनता नहीं ..भगवान मेरी सुन लो..वृद्ध जो शरीर की जर्जरता आदि से परेशान है..अरे अब उठा ले मुझे आदि कमेंट करते हैं..इस तरह के प्रायः हजारों कमेंट हमने सुने होंगे..और वास्तव में मेरे मन में भी कहीं न कहीं ये बात अवश्य (पर अब नहीं ) थी कि सिस्टम (भगवान के ) में कोई न कोई गङबङी अवश्य हो सकती है..तमाम अनसुलझे अन्य प्रश्नों की तरह ये प्रश्न भी मेरी प्रश्नावली में प्रमुख था . ग्यान के द्वैत मार्गीय विचारधारा के सम्पर्क में मैं 1990 to 2005 तक रहा इनके पास मेरे प्रश्नो का उत्तर नहीं था ..यदि था भी तो इस तरह का कि एक प्रश्न का
उत्तर मिले और बीस नये प्रश्न पैदा हो जांय..इसलिये क्योंकि उत्तर से संतुष्टि नहीं होती थी मैंने उस उत्तर से अपने को कनेक्ट ही नहीं किया..तब जब 2005 to 2010 में मैं अद्वैत ग्यानियों के सम्पर्क में आया मुझे कई प्रश्नों के सटीक उत्तर मिलने लगे..जिनके बाद कोई प्रश्न ही नहीं बन सकता..अद्वैत ग्यान की एक विशेषता है कि यदि प्रश्नकर्ता आप हैं तो उत्तर देने वाले भी आप ही होंगे..वे महान लोग तो आपको उस धारा से सिर्फ़ जोङते हैं जहाँ अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर झिलमिला रहें हैं कहने का अर्थ ये उत्तर मौखिक नहीं होते . इसी सम्बन्ध में कबीर ने कहा है..जब तक न देखो नैनी तब तक न मानों कहनी तो मैंने ऐसे ही प्रश्नों की एक लङी जिसका मूल स्वर ये था कि संसार में तमाम विषमताएं..तमाम तरह की उलझनें..और परेशानियां क्या ये सिद्ध नहीं करती कि या तो कोई भगवान है ही नहीं और यदि है भी तो उससे संविधान बनाने में भूल हुयी है..या फ़िर वो आततायी की तरह मनमानी करने वाला है .
परम स्वतंत्र न सिर पे कोई . भावहि मनहि ,करो तुम सोई ..या तो भगवान इस तरह का मस्तमौला है जैसे अपन लोग कहते हैं कि अपना काम बनता भाङ में जाय जनता..आदि . इस तरह की तमाम बातें रखते हुये मैंने जोरदार लहजे में कहा कि ..निसंदेह यह भूल है..? तब उन संत ने कहा..कि ये भूल नहीं रूल है..तेरी सत्ता के बिना हिले न पत्ता.. खिले न एक हू फ़ूल ..हे मंगल मूल..बेटा कमी भगवान या उसके संविधान में नहीं है तुझमें है.. तू स्वय से स्वयं को देख...आप यकीन नहीं करेगें मात्र इतने वचनों से ही मेरा अग्यानवत भ्रम रूपी किला किसी जर्जर भवन की तरह ढह गया . इसी से मिलता जुलता एक प्रसंग याद आ गया जो आपसे शेयर कर रहा हूँ .
चार बिलकुल निकम्मा इंसान थे जिन्हें कोई काम करना पसंद ही नहीं था..बस मुफ़्त की खाने को मिले और पङे रहो यही उनकी जिंदगी का परमलक्ष्य था . किसी सुयोगवश वे घूमते फ़िरते एक दयालु ह्रदय महात्मा की कुटिया पर पहुँचकर कुछ दिन रहे और चन्दन विष व्यापे नहीं लपटे...वाली बात चरितार्थ करते हुये महात्मा ने उन्हें कुछ ग्यान रूपी शीतलता प्रदान की . कुछ दिन रहने के बाद महात्मा जी उन्हें दीक्षा दी और इस तरह वे उनके शिष्य बन गये . इसके कुछ दिन बाद वे पुनः भ्रमण पर निकल गये और चलते चलते एक ऐसे राजा के राज्य में पहुँच गये जिसे कविता , कवि और कवि सम्मेलन करवाने में बेहद आनन्द आता था . राज्य का पूरा माहौल ही राजा की वजह से कवित्वमय था . ये चारों जब राज्य में पहुँचे तो राजा के इस अनोखे शौक के बारे में पता चला और ये भी पता चला कि यदि कोई कवित्व योग्यता रखता है तो इस राज्य में उसकी जीवन भर मौज ही मौज है..बस राजा को कविता सुनाओ और मुफ़्त में हर तरह के शाही मजे लूटो..ये मूरखमती तो थे ही बिना सोचे विचारे राजा के
दरवार में हाजिर हो गये और अपना परिचय एक अनाम गुमनाम राजा (जिसका वास्तव में कोई अस्तित्व ही न था ) के राजकवि के रूप में दिया . ये कहना ही था कि चारों की शाही खातिरदारी शुरु हो गयी..चारो एक दूसरे को देखकर मुस्कराये..ये खूब उल्लू मिला..तीन दिन बाद राजदरवार में कविता पाठ का आयोजन हुआ तो चारो की सिट्टी पिट्टी गुम हो गयी क्योंकि वे कविता करना जानते ही नहीं थे..जबकि राजा इन नये "राजकवियों" का कविता पाठ सुनने को बेहद उत्सुक था . तब चारों ने एक सलाह बनाई और महीना भर तक मौज उङाने का प्लान तैयार करते हुये राजा को बताया कि राजन हम इस समय देवी सरस्वती की एक विशेष साधना में लगे हुये हैं इसलिये महीना भर तक कविता पाठ नहीं कर सकतेउसके बाद हम आपको दिव्य कविता सुनायेंगे..तब तक हमें किसी प्रकार डिस्टर्ब न किया जाय .
राजा और भी प्रभावित हो गया उसने चारों के लिये बङिया इन्तजाम के आदेश दिये...ये चारों मन में ये विचार बनाये हुये थे कि पचीस दिन मौज उङाओ और उसके बाद चुपचाप खिसक लेंगे ये राजा वैसे भी एक नम्बर का उल्लू है ...इस तरह बीस दिन गुजर गये..राजा इनका बेहद ध्यान रखता था तब मन्त्री आदि कुछ दरवारियों ने राजा से शंका जाहिर की महाराज ये किसी भी एंगिल से कवि नहीं लगते हाँ हरामखाऊ बिना प्रयत्न के ही लगते हैं..राजा को ये बात जमी और उसने उन पर निगरानी बैठा दी कि अगर ये भागने की कोशिश करें तो तुरन्त गिरफ़्तार कर लिया जाय और अगर ये झूठे निकले तो इन्हें फ़ांसी पर लटका दिया जाय..विद्वान मन्त्री ने कूटनीति का सहारा लेते हुये ये बात दस दिन पहले ही चारों तरफ़ चर्चा के रूप में फ़ैला दी जो एक दूसरे के मुँह से होते हुये इन चारों के कान तक जा पहुँची अब तो चारों को काटो तो खून नहीं बाली बात हो गयी मौज की जगह हर वक्त फ़ांसी का फ़ंदा नजर आने लगा..क्या करें क्या न करें..निगरानी करते हुये सैनिक यमदूत से नजर आते..आखिरी दिन वे टहलने गये..फ़ांसी स्पष्ट नजर आ रही थी..तब उनमें से एक ने सुझाव दिया आओ कविता खोजने की कोशिश करते हैं चारों बस्ती से बाहर एक सङक पर टहल रहे थे और कविता खोजने की कोशिश कर रहे थे..तब उनमें से एक चिल्लाया मुझे मिल गयी.. मुझे कविता मिल गयी..तीनों ने उसकी ओर देखा तो उसने एक औरत की तरफ़ इशारा किया जो अपने सिर पर पीपल काट कर ले जा रही थी और बोला . कविता है..."पीपर लाये नारि.."
तब तक दूसरा चिल्लाया मुझे भी मिल गयी. उसने जामुन का वृक्ष जो फ़लों से लदा था उसकी और उंगली दिखाते हुये कहा.." जामन लगी अपार " अब तीसरा भी चिल्लाया . मुझे भी मिल गयी .उसने एक गूलर के वृक्ष की तरफ़ इशारा किया..." ऊमर कबहु थिर न रहे "
(गूलर के अनेक नामों में से उसका एक नाम " ऊमर " भी होता है . गूलर की एक खासियत होती है यदि आप कभी इस पेढ के नीचे या पास खङे हुये होंगे तो आपने देखा होगा कि प्रत्येक दो सेकेन्ड में एक दो या तीन चार गूलर टप टप गिरते रहतें हैं यह क्रम हमेशा चलता रहता है . इसी हेतु उसने कहा कि गूलर में थिरता नहीं होती ) तभी चौथा भी बोला..मुझे भी कविता प्राप्त हो गयी.." तापर बङ गयी रार " उसने तापर वृक्ष पर लिपटी हुयी ढेरों रार ( अमरबेल ) की तरफ़ इशारा किया .
( तापर भी एक वृक्ष होता है..और " रार " अमरबेल को कहते हैं इसको रार इसलिये कहते हैं क्योंकि ये झगङे की तरह थोङे से सहारे में बङती ही चली जाती है . इसकी अपनी कोई जङ नहीं होती..पत्ते आदि नही होते बस चाऊमीन जैसे लम्बे लम्बे पीले धागे पेढों पर लिपटे रहते है और फ़ैलते ही चले जाते हैं..यधपि इसके औषधीय उपयोग बहुत हैं परन्तु दैनिक जीवन में इसका सामान्य उपयोग एक भी नहीं है..(जो लोग स्टीम बाथ के शौकीन हैं वे यदि पानी में इसको लगभग तीन सौ ग्राम डाल दें और फ़िर चेहरे को छोङकर अन्य शरीर पर इसकी भाप लें तो ये नस नाङियों को स्वच्छ कर देती है रक्त का प्रवाह बेहतर करती है..कई लोगों का इससे रंग भी निखर कर गोरा हो जाता है..त्वचा की समस्याओं में भी लाभप्रद है..स्टीम बाथ के बारे में कई लोगों की धारणा है कि इसको घर पर साधारण
तरीके से नही ले सकते . ऐसा नहीं है आप एक छोटे स्टूल या छिद्रयुक्त कुर्सी पर केवल चढ्ढी पहनकर या चाहे तो वो भी न पहनें..एक बङा कपङा ओङकर बैठ जाये..और उसी में भाप का बर्तन रखकर उसका मुँह थोङा ही खोलें ये स्नान कमाल का फ़ायदेमंद है..हाँ इसको करते समय सिर पर कपङा बांधना न भूले.)..खैर संभवतः तभी किसी ने चिढ में इसका नाम रार (झगङा) रख दिया होगा .
इस तरह हमारे चारों कवि भाईयों को कविता मिल गयी और वे आश्वस्त हो गये कि अब तो बच ही जायेंगे . नियत समय पर चारों ने कविता सुनायी .
एक - पीपर लाये नारि
दो - जामन लगी अपार
तीन - ऊमर कबहु थिर न रहे
चार - तापर बङ गयी रार
कविता सुनकर सब हँसने लगे..तब राजा ने कहा प्रिय कवियो इस का अर्थ भी स्पष्ट करें..अब चारों एक दूसरे का मुँह ताकने लगे अर्थ बताने की समस्या आ सकती है इसकी तो उन्होनें कल्पना भी नहीं की थी..वे सिर झुकाकर लज्जित से नीचे देखने लगे..कुछ ही देर में राजा ने उन्हें फ़ांसी पर लटकाने का आदेश कर दिया..आदेशानुसार फ़ांसी कल दिन में होनी थी..उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया...चारों जेल में फ़ांसी के फ़न्दे पर लटकने की कई तरह से कल्पना कर रहे थे..तभी अंतिम समय में उन्हें उस महात्मा याने अपने गुरु के वचन याद हो आये ..जब कहीं कोई उम्मीद न हो ऐसी मरने के समान स्थिति में भी गुरु ऐसे बचा लेते हैं जैसे कोई बेहद मामूली बात हो ..उस समय तो उन्हें ये बात हास्यापद लगी पर अब जाने क्यों महत्वपूर्ण लगने लगी और वे एकटक होकर गुरु को याद करने लगे और प्रार्थना करने लगे कि गुरु कैसे ही उन्हें फ़ांसी से बचा लें..इस समय उनकी स्थिति चीर हरित द्रोपदी और ग्राह के चंगुल में फ़ंसे गजराज जैसी थी..आस वास दुविधा सब खोई..सुरति एक कमल दल होई..इसका अर्थ ये है कि उनकी समस्त आशा इस बिन्दु पर आकर केन्द्रित हो गयी कि अब उन्हें कोई अगर बचा
सकता है तो वे गुरु महाराज ही हैं .
नियत समय पर जैसे ही फ़ांसी का वक्त आया..वास्तव में उनकी प्रार्थना कामयाव हो गयी..एन वक्त पर महात्मा प्रकट हो गये (आ गये ) और हाथ उठाकर कहा .ठहरो.. राजन इन्हें किस अपराध में मत्युदन्ड दिया जा रहा है..?
राजा ने उनके झूठ के बारे में बताया...महात्मा ने कहा...राजन इनकी कविता के भाव बेहद गहराई युक्त है और इसका प्रसंग भी धार्मिक है...राजा ने चौंककर महात्मा को देखा..
महात्मा ने कहा ..राजन कविता और उसका मर्म सुनिये .
पी पर लाये नारि . जा मन लगी अपार . ऊमर कबहु थिर न रहे . तापर बढ गयी रार
सुनिये राजन...ये मंदोदरी और रावण के बीच का प्रसंग है..पी पर लाये नारि यानी पिया परायी औरत घर ले आये...जा मन लगी अपार...अर्थात सीता उसके मन में बसी हुयी थी ऊमर कबहु थिर न रहे..अर्थात जिंदगी का कोई भरोसा नहीं..यौवन शीघ्र ही विदा हो जाता है...तापर बङ गयी रार..मंदोदरी बोली हे पिया एक औरत के पीछे इतना बङा युद्ध उचित नहीं हैं..राजा संतुष्ट हो गया . चारों को छोङ दिया गया..लेकिन आगे के लिये राजा के रोकने पर भी चारों नहीं रुके और गुरु के साथ ही निकल आये..राजा ने उन्हें ससम्मान भेंट देकर विदा किया|
कबिरा हरि के रूठते गुरु के शरणे जाय..कह कबीर गुरु रूठते हरि नहि होत सहाय .
कबिरा वे नर अन्ध हैं गुरु को कहते और ..हरि के रूठे ठौर है गुरु रूठे नहीं ठौर .

मेरे बारे में

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।