रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 3



पदमा ने धुले कपङों से भरी बाल्टी उठाई, और बाथरूम से बाहर आ गयी ।
उसके बङे से आंगन में धूप खिली हुयी थी । वह फ़टकारते हुये एक एक कपङे को तार पर डालने लगी । उसकी लटें बारबार उसके चेहरे पर झूल जाती थी, जिन्हें वह नजाकत से पीछे झटक देती थी ।
विवाह के चार सालों में ही उसके यौवन में भरपूर निखार आया था, और उसका अंग अंग खिल सा उठा था । अपने ही सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध हो जाती, और तब उस में एक अजीब सा रोमांच भर जाता ।
वाकई पुरुष में कोई जादू होता है, उसकी समीपता में एक विचित्र उर्जा होती है, जो लङकी को फ़ूल की तरह से महका देती है । विवाह के बाद उसका शरीर तेजी से भरा था ।
ये सोचते ही उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौङ गयी ।
मनोज ने एक गहरी सांस ली, और उदास नजरों से नितिन को देखा ।
उसकी आँखें हल्की हल्की नम हो चली थी ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - कैसा अजीब बनाया है, ये दुनियाँ का सामाजिक ढांचा, और कैसा अजीब बनाया है, देवर भाभी का सम्बन्ध । दरअसल..मेरे दोस्त, ये समाज समाज नहीं, पाखण्डी लोगों का समूह मात्र है । हम ऊपर से कुछ और बरताव करते हैं, हमारे अन्दर कुछ और ही मचल रहा होता है ।
हम सब पाखण्डी हैं, तुम, मैं और सब ।
मेरी भाभी ने मुझे माँ के समान प्यार दिया । मैं पुत्रवत ही उससे लिपट जाता, उसके ऊपर लेट जाता, और कहीं भी छू लेता, क्योंकि तब उस स्पर्श में कामवासना नहीं थी । इसलिये मुझे कहीं भी छूने में झिझक नहीं थी, और फ़िर वही भाभी कुछ समय बाद मुझे एक स्त्री नजर आने लगी, सिर्फ़ एक जवान स्त्री ।
तब मेरे अन्दर का पुत्र लगभग मर गया, और उसकी जगह सिर्फ़ पुरुष बचा रह गया । भाभी को चुपके चुपके देखना और झिझकते हुये छूने को जी ललचाने लगा ।
जिस भाभी को मैं कभी गोद में ऊँचा उठा लेता था । भाभी मैं नहीं, मैं नहीं.. कहते कहते उनके सीने से लग जाता, अब उसी भाभी को छूने में एक अजीब सी झिझक होने लगी ।
इस कामवासना ने हमारे पवित्र माँ, बेटे जैसे प्यार को गन्दगी का कीचङ सा लपेट दिया । लेकिन शायद ये बात सिर्फ़ मेरे अन्दर ही थी, भाभी के अन्दर नहीं ।
उसे पता भी नहीं था कि मेरी निगाहों में क्या रस पैदा हो गया ?
और तब तक तो मैं यही सोचता था ।
बाल्टी से कपङे निकाल कर निचोङती हुयी पदमा की निगाह अचानक सामने बैठे मनोज पर गयी । फ़िर अपने पर गयीउसका वक्ष आँचल रहित था, और साङी का आँचल उसने कमर में खोंस लिया था ।
अतः वह चोर नजरों से उसे देख रहा था ।
- क्या गलती है इसकी ? उसने सोचा - कुछ भी तो नहीं, ये होने जा रहा मर्द है । कौन ऐसा साधु है, जो युवा स्त्री का दीवाना नहीं होता । बूढ़ा, जवान, अधेङ, शादीशुदा या फ़िर कुंवारा, भूत, प्रेत या देवता भी ।
सच तो ये है कि एक स्त्री भी स्त्री को देखती है । स्वयं से तुलनात्मक या फ़िर वासनात्मक भी । शायद ईश्वर की कुछ खास रचना हैं नारी ।
अतः उसने आँचल ठीक करने का कोई उपक्रम नहीं किया, और सीधे तपाक से पूछा - क्या देख रहा था ?
मनोज एकदम हङबङा गया, उसने झेंप कर मुँह फ़ेर लिया ।
उसके चेहरे पर ग्लानि के भाव थे ।
पदमा ने आखिरी कपङा तार पर डाला, और उसके पास ही चारपाई पर बैठ गयी ।
उसके मन में एक अजीब सा भाव था, शायद एक शाश्वत प्रश्न जैसा ।
औरत ! पुरुष की कामना, औरत । औरत..पुरुष की वासना, औरत । औरत..पुरुष की भावना, औरत ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।