रविवार, दिसंबर 18, 2011

महातांत्रिक और मृत्युदीप 3




वह मस्जिद की दीवाल के ठीक पीछे पहुँच गयी ।
और तब अचानक उसे ख्याल आया कि उसने यहाँ आकर भी गलती की, उसे सीधा घर जाना चाहिये था, और कल सल पुष्कर को बताना चाहिये था कि अब वह उससे कोई सम्बन्ध नहीं रख सकती । क्योंकि अब वह उसकी प्रेमिका नहीं, बल्कि किसी की विवाहिता है ।
अपनी यही सोच उसे उचित लगी, और वह घर जाने के लिये हुयी ।
तभी पीछे से किसी ने उसे बाँहों में भर लिया, और कस कर भींचने लगा ।
वह एकदम से हङबङा गयी, और उसकी जबान मानों सिल ही गयी ।
पुष्कर में कामप्रवाह अनियन्त्रित होकर बह रहा था ।
वह मंजरी के स्तनों को सहलाने लगा, और बेहद उतावले पन का परिचय दे रहा था ।
एक अजीब सी मुर्दानी बदबू भी उसे अपने इर्द गिर्द महसूस हो रही थी ।
पर सब कुछ अचानक सा था, और स्थिति एकदम उसकी सोच के विपरीत हो गयी ।
वह सोच रही थी, पुष्कर से बात करते हुये रूखा बरताव करके उसके अरमानों पर तुषारपात कर देगी । पर उस दीवाने ने तो उसे कोई मौका ही नहीं दिया, और कुछ ही क्षणों में उसके वस्त्र खोल दिये ।
नैतिक बोध जागते ही वह थोङा कसमासाई भी, और बोली - छोङो मुझे, क्या कर रहे हो ये सब ।
- चुप रहो । वह अजीब से ठण्डे स्वर में बोला - मुझे रोको मत, ऐसे मौके बार बार नहीं आते ।
वह कमजोर पङ गयी ।
वह सच ही तो कह रहा था । फ़िर भी वह तर्क देना चाहती थी । पर प्रेमी उसे मौका ही नहीं दे रहा था, और बे-सबरा सा उसके अंग प्रत्यंग को सहलाये जा रहा था । नैतिक बोध उसे रोक रहा था, और शरीर की भङकती भूख तङपते प्रेमी के आगे समर्पित सहयोग करती चली जा रही थी ।
इन दोनों के मध्य उसका अंतर्मन आगे पीछे जाते झूले की भांति झूल रहा था । इसलिये दोनों के मध्य दबंग पुरुष के समक्ष बेबस औरत का सा व्यवहार जारी था ।
काले अँधेरे में काली कामनायें ही खेल रही थी ।
वे एक दूसरे को देख नहीं पा रहे थे । बस महसूस ही कर रहे थे ।
और तब उसने पुष्कर को उसके उन्मादी लक्ष्य पर महसूस किया ।
उसे तेज गरमाहट सी स्पर्श करने लगी, और उसका विरोध क्षीण होने लगा ।
पुष्कर का चेहरा उसके पुष्ट उरोजों से सटा हुआ था ।
लेकिन उसकी हङबङाहट उसे बारबार असफ़ल कर रही थी ।
तब उसमें एक साथ कई मिश्रित भावनाओं का संचार हुआ ।
उसका प्रेमी, उसका मिलन का वादा, कभी साथ गुजारे उनके प्रेम के मधुर क्षण ।
और इन सबसे अधिक शक्तिशाली, दो तपते जवान जिस्मों का संगम ।
एक दूसरे में समा जाने को तत्पर ।
उसके सुन्दर चेहरे पर उस घोर अँधेरे में भी उसके अन्दर की प्रेमिका मुस्कराई, और सहयोग करते हुये उसने उस अनाङी घुङसवार की लगाम थामकर सही रास्ता दिखा दिया ।
समर्पित औरत के प्रेम का लरजता स्पर्श !
उसके नाजुक हाथ का साथ पाते ही उसमें अदम्य ऊर्जा भरती गयी ।
और वह कामना की गहराईयों में उतरता चला गया ।
उसका समस्त नैतिक अपराध बोध वासना की आँधी उङा ले गयी ।
और सब कुछ भूलकर वह अपने प्रेमी के साथ उस अरमानों की सुरंग में दौङने लगी ।
वह उछल कर उमंगों के घोङे पर सवार हो चुकी थी, घोङा बेलगाम दौङ रहा था ।
उन्मुक्त, उन्मादी, पागल, आवारा !
वह हाँफ़ने लगी, और कसकर पुष्कर के साथ चिपक गयी । उसने तेजी से उसे जकङ लिया, और उस घुङसवार की मजबूत टाप महसूस करने लगी ।
लेकिन हर दौङ की कोई न कोई मंजिल होती है ।
अश्वारोही ऊर्जाहीन हो चुका था ।
उसका संगठित हुआ काम-अस्तित्व पिघलने लगा था ।
तब वह लावे के समान फ़ैलने लगा ।
अनोखी तृप्ति के अहसास से मंजरी की आँखें बन्द हो गयीं ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।