रविवार, दिसंबर 18, 2011

महातांत्रिक और मृत्युदीप 7




- बाबाजी । तारा उसके विचार भंवर से उबरने से पहले ही बोली - साधु का जीवन ही दीन दुखियों पर उपकार के लिये होता है । अगर कोई गलती हुयी भी है, तो वो हम जैसे अज्ञानियों से होना स्वाभाविक है, और उसको क्षमा करना आपका बङप्पन ।
जोगी भी आखिर तान्त्रिक से पहले एक इंसान ही था ।
सामने दयायाचना लिये खङी नवविवाहिता लङकी ।
और उसके लिये दया की भीख मांगती वो अबला, उसको अन्दर तक झिंझोङ गयी ।
उसने गम्भीरता से भारी स्वर में हुँ’ कहते हुये सिर हिलाया ।
और बोला - ठीक है, अपनी बहू को लेकर जाओ देवी । अब पिशाच इसको छाया नहीं देगा ।
दोनों के चेहरे पर अप्रत्याशित खुशी की लहर दौङ गयी ।
तारा ने मंजरी को तेजी से संकेत किया ।
और वे दोनों उसके चरणों में झुक गयी - आशीर्वाद दें स्वामी जी ।
- अरे नहीं नहीं । कहता हुआ जोगी तेजी से पीछे हटा - ये क्या कर रही है तू । ठीक है, ठीक है ।
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इंसान का जीवन भी एक अजब पहेली है ।
इसका एक प्रश्न हल होता है, तो दूसरा पैदा हो जाता है ।
दूसरा हल होता है, तो तीसरा उत्पन्न हो जाता है ।
फ़िर कभी कभी एक साथ ही, कई प्रश्न पैदा हो जाते है ।
और कभी कभी तो ऐसा होता है कि पैदा हुये प्रश्नों का कोई हल ही नहीं होता ।
अपने एकमात्र पुत्र का मुँह देखकर जीती हुयी विधवा तारा की जिन्दगी भी ऐसे ही कठिन और अनसुलझे प्रश्नों से भरी हुयी थी ।
एक अबला औरत ।
और काले नाग से फ़ुंफ़कारते जहरीले प्रश्न ।
पागल कर देने वाले प्रश्न ।
क्या करे वह । कहाँ जाये, किसका सहारा तके ।
और फ़िर एक दिन...
- अरे हत्यारे साधु । वह तेजी से उसी जंगल में भागती हुयी चली गयी - ले अब मुझे भी मार डाल, तेरी छाती ठण्डी हो जाये । तूने मेरा घरौंदा तो उजाङ ही दिया । हाय..अब मैं जीकर क्या करूँगी । निर्दयी मार डाल मुझे भी, छोङ दे अपनी प्रेतों की सेना मुझ पर । अरे पिशाचों खून पी लो मेरा । अब मैं भी जीवित न रहूँगी ।
भयानक काली अंधेरी रात ।
समूचा जंगल सांय सांय कर रहा था ।
जिसमें घुसते हुये कोई जिगरवाला भी कांप जाये ।
तारा बेखौफ़ दौङी जा रही थी ।
वह प्रेतवासा में आ पहुँची थी, और उच्च स्वर में रोती चीखती जा रही थी ।
जोगी जलते अलाव के पास बैठा कच्ची मदिरा का सेवन कर रहा था ।
नशे की खुमारी उस पर चढ़ने लगी थी, और उसकी आँखें लाल सुर्ख हो चुकी थी ।
किसी शहंशाह की भांति बैठा हुआ वह कुछ दूर विचरते प्रेतों को देख रहा था कि अचानक दूर से आता नारी विलाप सुनकर चौंका, और झटके से खङा होता हुआ उसी तरफ़ आने लगा ।
लालटेन उसके हाथ में थी ।
फ़िर वह उसके पास आकर रुक गया ।
तारा अर्द्धविक्षिप्त सी छाती पीट पीटकर विलाप कर रही थी ।
वह हैरानी से उसे देखता रहा ।
पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया ।
- क्या हुआ । वह भौंचक्का सा बोला - क्या हुआ बेटी, तू इस तरह क्यों रो रही है?
- अरे हत्यारे! वह दहाङ कर बोली - ये पूछ..क्या नहीं हुआ । मैं बरबाद हो गयी, मेरा घर उजङ गया । मेरा इकलौता बेटा...मेरा बेटा..बहू..सब ..सब तेरे उस पिशाच की...। वो अब..और ये सब..तेरी वजह से हुआ ।
जोगी हक्का बक्का रह गया ।
वह क्या बोले जा रही थी ।
उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था ।
वह पागल सी हो गयी थी, और कुछ भी सुनने समझने की स्थिति में नहीं थी ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।