रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 2


- क्या बताऊँ दोस्त? वह गम्भीरता से दूर तक देखता हुआ बोला - शायद तुम कुछ न समझोगे, ये बङी अजीब कहानी ही है । भूत प्रेत जैसी कोई चीज क्या होती है? तुम कहोगे, बिलकुल नहीं । मैं भी कहता हूँ, बिलकुल नहीं । लेकिन कहने से क्या हो जाता है, फ़िर क्या भूत प्रेत नहीं ही होते ।
- ये दीपक? नितिन हैरानी से बोला - ये दीपक, आप यहाँ क्यों ..मतलब?
- मेरा नाम मनोज है । लङके ने एक निगाह दीपक पर डाली - मनोज पालीवाल, ये दीपक क्यों, दरअसल मुझे खुद पता नहीं, ये दीपक क्यों? इस पीपल के नीचे ये दीपक जलाने से क्या हो सकता है । मेरी समझ के बाहर है, लेकिन फ़िर भी जलाता हूँ ।
- पर कोई तो वजह ..वजह? नितिन हिचकता हुआ सा बोला - जब आप ही..आप ही तो जलाते हैं ।
- बङे भाई ! वह गहरी सांस लेकर बोला - मुझे एक बात बताओ । घङे में ऊँट घुस सकता है, नहीं ना । मगर कहावत है । जब अपना ऊँट खो जाता है, तो वह घङे में भी खोजा जाता है । शायद इसका मतलब यही है कि समस्या का जब कोई हल नजर नहीं आता । तब हम वह काम भी करते हैं, जो देखने सुनने में हास्यास्पद लगते हैं । जिनका कोई सुरताल ही नहीं होता ।
उसने बङे अजीब भाव से एक उपेक्षित निगाह दीपक पर डाली, और यूँ ही चुपचाप सूने मैदानी रास्ते को देखने लगा । उस बूढ़े पुराने पीपल के पत्तों की अजीब सी रहस्यमय सरसराहट उन्हें सुनाई दे रही थी ।
अंधेरा फ़ैल चुका था, और वे दोनों एक दूसरे को साये की तरह देख पा रहे थे ।
मरघट के पास का मैदान ।
उसके पास प्रेत स्थान युक्त ये पीपल, और ये तन्त्रदीप ।
नितिन के रोंगटे खङे होने लगे ।
तभी अचानक उसके बदन में एक तेज झुरझुरी सी दौङ गयी ।
उसकी समस्त इन्द्रियाँ सजग हो उठी ।
वह मनोज के पीछे भासित उस आकृति को देखने लगा ।
जो उस कालिमा में काली छाया सी ही उसके पीछे खङी थी, और मानों उस तन्त्रदीप का उपहास उङा रही थी ।
- मनसा जोगी ! वह मन में बोला - रक्षा करें । क्या मामला है, क्या होने वाला है ?
- कुछ..सिगरेट वगैरह..। मनोज हिचकिचाता हुआ सा बोला - रखते हो । वैसे अब तक कब का चला जाता, पर तुम्हारी वजह से रुक गया । तुमने दुखती रग को छेङ दिया । इसलिये कभी सोचता हूँ, तुम्हें सब बता डालूँ । दिल का बोझ कम होगा । पर तुरन्त ही सोचता हूँ । उसका क्या फ़ायदा, कुछ होने वाला नहीं है ।
- कितना शान्त होता है, ये मरघट । मनोज एक गहरा कश लगाकर फ़िर बोला - ओशो कहते हैं, दरअसल मरघट ठीक बस्ती के बीच होना चाहिये । जिससे आदमी अपने अन्तिम परिणाम को हमेशा याद रखें ।
मनोज को देने के बाद उसने भी एक सिगरेट सुलगा ली और जमीन पर ही बैठ गया । लेकिन मनोज ने सिगरेट को सादा नहीं पिया । उसने एक पुङिया में से चरस निकाला । उसने वह नशा नितिन को भी आफ़र किया, लेकिन उसने शालीनता से मना कर दिया ।
तेल से लबालब भरे उस बङे दिये की पीली रोशनी में वे दोनों शान्त बैठे थे ।
नितिन ने एक निगाह ऊपर पीपल की तरफ़ डाली, और उत्सुकता से उसके अगले कदम की प्रतीक्षा करने लगा ।
उसे हैरानी हो रही थी । वह काली अशरीरी छाया उन दोनों से थोङा दूर ही शान्ति से बैठी थी, और कभी कभी एक उङती निगाह मरघट की तरफ़ डाल लेती थी ।
नितिन की जिन्दगी में यह पहला वास्ता था । जब उसे ऐसी कोई छाया नजर आ रही थी । रह रहकर उसके शरीर में प्रेत की मौजूदगी के लक्षण बन रहे थे । उसे वायु रूहों का पूर्ण अहसास हो रहा था, और एकबारगी तो वह वहाँ से चला जाना ही चाहता था, पर किन्हीं अदृश्य जंजीरों ने जैसे उसके पैर जकङ दिये थे ।
- मनसा जोगी ! वह हल्का सा भयभीत हुआ - रक्षा करें ।
मनोज पर चरसी सिगरेट का नशा चढ़ने लगा । उसकी आँखें सुर्ख हो उठी ।
- ये जिन्दगी बङी अजीब है मेरे दोस्त । वह किसी कथावाचक की तरह गम्भीरता से बोला - कब किसको बना दे । कब किसको उजाङ दे । कब किसको मार दे । कब किसको जिला दे ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।