रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 9




रात के नौ बजने में भी अभी बीस मिनट बाकी थे ।
- मनोज भाई । पदमा उसके सामने बैठते हुये बोली - तुम्हें कैसी लङकियाँ अच्छी लगती हैं ? दुबली, मोटी, लम्बी, नाटी, गोरी, काली ।
- क्यों पूछा ? वह हैरानी से बोला - ऐसा प्रश्न आपने ।
- क्यूँ पूछा, क्या मतलब ? वह आँखें निकाल कर बोली -  मैं तेरी भाभी हूँ, देख मेरी आँखें कितनी बङी बङी हैं, और ये अन्दर तक देख सकती हैं । पर तूने पूछा है तो बता देती हूँ । क्योंकि मैं जानती हूँ कि अब एक जवान लड़की का साथ तुम्हारी शारीरिक आवश्यकता बन चुकी है । तुम अक्सर एक्साइटिड और होर्नी होते हो, इसलिये ।
अरे उसमें कौन सी चोरी वाली बात है । फिर मैं ही तो तेरे लिये लङकी तलाश करूंगी ।  
- लगता है न सब कुछ अश्लील सा । वह फ़िर से बोला - मगर सोचो तो वास्तव में है नहीं । ये सिर्फ़ पढ़ने सुनने में अश्लील लगता है, किसी पोर्न चीप स्टोरी जैसा । पर ठीक से सोचो, तो भाभियों को इससे भी गहरे खुले मजाक करने का सामाजिक अधिकार हासिल है । प्रायः ऐसे खुले शब्दों, वाक्यों का प्रयोग उस समय होता है, जिनको कहीं लिखा नहीं जा सकता, और मैं तुमसे कह भी नहीं सकता । बताओ इसमें कुछ गलत है क्या ?
नितिन ने पहली बार सहमति में सिर हिलाया ।
वह सच्चाई के धरातल पर बिलकुल सत्य बोल रहा था ।
यकायक फ़िर उसकी निगाह पीछे से चलकर आती उसी काली छाया पर गयी, शायद आज वह देर से आयी थी ।
उसने एक नजर शमशान के उस हिस्से पर डाली, जहाँ चिता सजायी जाती थी ।
वह कुछ देर गौर से उधर देखती रही, फ़िर चुपचाप उनसे कुछ दूर बैठ गयी ।
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कहते हैं, सौन्दर्य और कुरूपता, नग्नता और वस्त्र आदि आवरण देखने वाले की आँख में होते हैं, दिमाग में होते हैं, न कि उस व्यक्ति में, जिसमें ये दिखाई दे रहा है ।
हम किसी को जब बेहद प्यार करते हैं, तो साधारण शक्ल सूरत वाला वह व्यक्ति भी हमें खास नजर आता है । बहुत सुन्दर नजर आता है, और लाखों में एक नजर आता है । क्योंकि हम अपने भावों की गहनता के आधार पर उसका चित्रण कर रहे होते हैं ।
- नितिन जी ! वह फ़िर से बोला - ये ठीक है कि मेरी भाभी एक आम स्त्री के चलते वाकई सुन्दर थी, और सर्वांग सुन्दर थी । इतनी सुन्दर, इतनी मादक कि खुद शराब की बोतल, अपने अन्दर भरी सुरा से मदहोश होकर झूमने लगे ।
पर मेरे लिये वह एक साधारण स्त्री थी, एक मातृवत औरत । जो पूर्ण ममता से मेरे भोजन आदि का ख्याल रखती थी ।
वह हमारे छोटे से घर की शोभा थी । मैं उसकी सुन्दरता पर गर्वित तो था, पर मोहित नहीं । उसकी सुन्दरता उस दृष्टिकोण से मेरे लिये आकर्षणहीन थी कि मैं उसे अपनी बाँहों में मचलने वाली रूप अप्सरा की ही कल्पनायें करने लगता ।
मुझे ठीक समझने की कोशिश करना भाई । मैं उसके अंगों को कभी कभी सुख पहुँचाने वाले भाव से अवश्य देख लेता था,  पर इससे आगे मेरा भाव कभी न बढ़ा था, और ये भाव शायद मेरा नहीं सबका होता है । एक सामान्य स्त्री पुरुष आकर्षण भाव । क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि वह मेरी भाभी है, और भाभी माँ समान भी होती है । होती क्या है , वो थी ।
मेरी माँ..भाभी माँ । बोलो कुछ गलत कहा मैंने ?
नितिन एक अजीब से मनोवैज्ञानिक झमेले में फ़ँस गया ।
उसका रुझान सिर्फ़ इस बात में था, कि उसके घर में ऐसी क्या परेशानी है, जिसके चलते वह शमशान में तंत्रदीप जलाता है । और ये काली औरत की अशरीरी छाया से इस लङके का क्या सम्बन्ध है ? और वो उसको मनुष्य के काम सम्बन्धों कामभावनाओं का मनोविज्ञान पूरी दार्शनिकता से समझा रहा था ।
शायद, उसने सोचा, अपनी बात पूरी करते करते ये गलत को सही सिद्ध कर दे, और कर क्या दे, वह बराबर करे ही जा रहा था ।
- लेकिन । तब उकता कर आखिर उसने बात का रुख मोङने की कोशिश की ।
- हाँ लेकिन । वह फ़िर से दूर से आते स्वर में बोला - ठीक यही कहा था मैंने, लेकिन भाभी किसी और लङकी की जरूरत ही क्या है । तुम मेरे लिये खाना बना देती हो, कपङे धो देती हो, फ़िर दूसरी और लङकी क्यों ?
पदमा वाकई पदमिनी नायिका थी ।
अंग अंग से बंधन तोङने को मचलता भरपूर उन्मुक्त यौवन ।
नहाने के बाद उसने आरेंज कलर की मैक्सी पहनी थी, और उस झिंगोले में आरेंज फ़्लेवर सी ही गमक रही थी ।
रूप की रानी, स्वर्ग से प्रथ्वी पर उतर आयी अप्सरा ।
उसने मैक्सी के बन्द अजीब आङे टेङे अन्दाज में लगाये थे कि उसे चोरी चोरी देखने की इच्छा का सुख ही समाप्त हो गया । उसका अंग अंग खिङकी से झांकती सुन्दरी की तरह नजर आ रहा था, और अब उसके सामने भाभी नहीं, सिर्फ़ एक कामिनी औरत थी । कामिनी औरत ।
- मनोज ! पदमा ने फिर भेदती निगाहों से उसे देखा, और बोली  - अभी शायद तुम उतना न समझो, पर हर आदमी में दो आदमी होते हैं, और हर औरत में दो औरत । एक जो बाहर से नजर आता है, और एक जो अन्दर से होता है, अन्दर.. । उसने एक निगाह उसके शरीर पर डाली -
इस अन्दर के आदमी की हर औरत दीवानी है  और क्योंकि अन्दर से तुम पूर्ण पुरुष हो, पूर्ण पुरुष ! छोटे स्केल से दो इंच बङे, और बङे स्केल से चार इंच छोटे
नितिन हैरान रह गया ।


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4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
बेनामी ने कहा…
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उमेश कुमार ने कहा…

राजीव जी नमस्कार। ऐसी कहानी तो आज तक नहीं पढ़ी। अभी 9 भाग ही पढ़े हैं कि आपने तो बैंड बजा के रख दी ।परास्त क्या धाराशायी ही कर दिया। कहानी के साथ साथ पाठक के मन का निरीक्षण भी स्वतः चलता रहता है और आपाधापी भी।कहानी को बीच में छोड़ना मुश्किल हो जाता है क्योंकि राजीव बाबा आदमी का मनोविज्ञान बखूबी जानते हैँ ।:आपके ब्लाग का नवीन पाठक

उमेश कुमार ने कहा…

राजीव जी नमस्कार। ऐसी कहानी तो आज तक नहीं पढ़ी। अभी 9 भाग ही पढ़े हैं कि आपने तो बैंड बजा के रख दी ।परास्त क्या धाराशायी ही कर दिया। कहानी के साथ साथ पाठक के मन का निरीक्षण भी स्वतः चलता रहता है और आपाधापी भी।कहानी को बीच में छोड़ना मुश्किल हो जाता है क्योंकि राजीव बाबा आदमी का मनोविज्ञान बखूबी जानते हैँ ।:आपके ब्लाग का नवीन पाठक

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।