सोमवार, अगस्त 09, 2010

सृष्टि का रहस्य..2

जब महाप्रभु उन सम्बन्ध रहित तत्वों में प्रविष्ट हुये । इससे उनमें क्षोभ उत्पन्न हुआ । सबसे पहले भगवान ने हिरण्यात्मक ब्रह्माण्ड बनाया । जो पचास करोड योजन में ( एक योजन बारह किलोमीटर के बराबर होता है । ) फ़ैला हुआ था । उसके ऊपर अवस्थित अत्यन्त सूक्ष्म भाग भी उतने ही विस्तार में फ़ैला हुआ था । जितने में उस हिरण्मय अण्ड का विस्तार था । उसके भी ऊपर पचास करोड योजन भूतल था । यह सात आवरणों द्वारा चारों ओर परिधि से घिरा हुआ था । पहले आवरण का नाम कबन्ध है । दूसरा आवरण
अग्निदेव का है । तीसरा आवरण महात्मा हर का है । चौथा आवरण आकाश का है । पांचवा आवरण अहंकार का है । छठा आवरण महतत्व का है । सातवां आवरण त्रिगुणात्मक है । इसके बाद अव्याकृत आकाश है । इसके विस्तार की कोई सीमा नहीं है । इसी मण्डल के मध्य अव्यय हरि हरि रहते हैं । आठवां आवरण आकाश का है । इसके मध्य में विरजा नदी है । इसका विस्तार पांच योजन का है । विरजा नदी में स्नान करके लिंग देह का परित्याग करके हरि के मोक्ष पद की प्राप्ति होती है । प्रारब्ध कर्म क्षय हो जाने पर ही विरजा में स्नान सम्भव होता है । इस विरजा नदी का प्रलय में भी लय नहीं होता । ये लक्ष्मी स्वरूप है । क्योंकि ये प्राणी के लिंग स्वरूप का नाश करती है । विरजा नदी के बाद व्याकृत आकाश है । जो निःसीम है । इसकी अभिमानी देवता लक्ष्मी है । सृष्टि के समय़ ब्रह्माण्ड के अभिमानी देवता ब्रह्मा थे । जो विराट कहे गये । इस प्रकार ब्रह्माण्ड आदि का सृजन करके हरि उन तत्वाभिमानी देवताओं के साथ उस ब्रह्माण्ड के ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त होकर नित्य स्थित रहते हैं । इसको प्राकृत सृष्टि है । अव्यक्त आदि से लेकर प्रथ्वी तक के जो भी तत्व इस अण्ड रूप जगत में बाह्य रूप से उत्पन्न हुये हैं । ये सभी प्राकृत सृष्ट कहे जाते हैं । और ब्रह्माण्ड तथा ब्रह्माण्डान्तवर्ती सृष्टि वैकृत सृष्टि कही जाती है । जिन्हें पुरुष कहते हैं । वे हरि हैं । उन हरि ने उस हिरण्मय अण्ड के मध्य जलराशि में एक हजार वर्ष तक शयन किया । उस समय लक्ष्मी जल रूप में थी । शय्या रूप विध्या थी । तरंग रूप वायु थे । और तम ही निद्रा रूप था । इसके अतिरिक्त वहां कोई नहीं था । उसी उदक के मध्य भगवान नारायण योगनिद्रा में स्थित थे । उस समय लक्ष्मी ने उनकी स्तुति की । हरि की प्रकृति ही उस समय लक्ष्मी और धरा या भू देवी का रूप धारण कर लेती है ।
और शेष वेद रूप धारण करके उन सोये हरि की स्तुति करते हैं । फ़िर वे महाविष्णु निद्रा का परित्यागकर प्रबुद्ध हो उठे । उस समय उनकी नाभि से सम्पूर्ण जगत का आश्रय भूत हिरण्मय पद्म प्रादुर्भूत हुआ । इसे प्राकृत सृष्टि के रूप में समझना चाहिये । उस सृष्टि की अभिमानी देवता भूदेवी थी । यह पद्म असंख्य सूर्य के समान प्रकाशवान है । चिदानन्दमय विष्णु उससे भिन्न हैं । इसे भगवान का किरीट आदि आभूषण समझना चाहिये । हरि के किरीट आदि भी दो प्रकार के हैं । एक स्वरूप भूत । दूसरा स्वरूप भिन्न । उस हिरण्मय पद्म से सभी लोकों के विधायक ब्रह्माण्ड की सृष्टि हुयी । उस पद्म से चतुर्मुख ब्रह्मा हुये । किसने मुझे बनाया ? वे प्रभु कौन है ? ऐसी जिग्यासा से ब्रह्मा उस पद्म के नाल में प्रविष्ट हो गये । किन्तु अग्यानवश होने से कुछ जान न सके । उस समय उन्हें तप तप ये दो शब्द सुनाई दिये । तब ब्रह्मा ने हरि की एक हजार दिव्य वर्ष तक तपस्या की । तब भगवान प्रसन्न होकर प्रकट हो गये । और ब्रह्मा द्वारा स्तुति के बाद कहा । हे ब्रह्मन ।मेरे प्रसाद से इन देवताओं की वैसी ही सृष्टि आप करें । जिस प्रकार पूर्वकाल में आपने की थी । हालांकि आपके लिये इसका कोई प्रयोजन नहीं हैं । फ़िर भी मेरी प्रसन्नता के लिये आप करें । तब महत्वात्मक ब्रह्मा ने सर्वप्रथम जीव के अभिमानी देवता वायु की सृष्टि की । इस तरह वायु सृष्टि का प्रथम पुरुषात्मा है । तब ब्रह्मा ने अपने दाहिने हाथ से ब्रह्माणी और भारती इन दो देवियों की सृष्टि की । बायें हाथ से सत्य के पुत्र महतत्वात्मक अनल को ( अग्नि ) उत्पन्न किया । दाहिने हाथ से ही अहंकारात्मक
हर की सृष्टि हुयी । इसी प्रकार शेष वायु गायत्री वारुणी सौपर्णी चन्द्र इन्द्र कामदेव आदि इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं । तथा मनु शतरूपा दक्ष नारद आदि ऋषि । कश्यप अदिति वसिष्ठ आदि ब्रह्म ग्यानी ऋषि । कुबेर विष्ववक्सेन आदि की देव सृष्टि हुयी ।

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।