रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 10




- अरे पगले ! पदमा इठला कर बोली - इन सब बातों को इतना सीरियस भी मत ले, ये देवर भाभी की कहानी है । और ये एक ऐसा रोमांस है कि जिसको रोमांस नहीं कह सकते, फ़िर भी होता रोमांस जैसा ही है ।
देख मैं बताती हूँ कि मेरी सोच क्या है । मैं रूपसी, रूप स्वरूपा, फ़िर यदि लोग मुझे देख कर आह ना भरें, तब इस रूप का क्या मतलब । हर रूपवती चाहती है कि लोगों पर उसके रूप का यही असर हो । रूप का रूपजाल, और निसंदेह तब मैं भी ऐसा ही चाहती हूँ, क्योंकि मेरा रूप, अच्छे अच्छों का रूप फ़ीका कर देता है ।
फ़िर एक बात और, अभी तुम आयु के जिस दौर से गुजर रहे हो, तुम्हें औरत को सिर्फ़ इसी रूप में देखना अच्छा लगेगा । न कोई माँ, न कोई बहन, न भाभी, बुआ, मौसी आदि आदि । औरत, और सिर्फ़ औरत..
औरत, जो पहले कभी लङकी होती है, फ़िर औरत । तब हम दोनों की ये वासना पूर्ति घर में ही हो जायेगी ।
- काफ़ी एक्सपर्ट लगती हैं आपकी भाभी । नितिन भी थोङा रस सा लेता हुआ बोला - मेरे ख्याल में ऐसी गुणवान, रूपवती, स्त्री का कोई विवरण न मैंने आज तक सुना, न कभी पढ़ा ।
- एक बात बताओ । अचानक मनोज उसे गौर से देखता हुआ बोला - तुमने कभी किसी लङकी, किसी औरत से प्यार किया है ?
उसने न में सिर हिलाया, और बोला - इस तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं गया । शायद मेरे स्वभाव में एक रूखापन है, और इससे उत्पन्न चेहरे की रिजर्वनेस से किसी लङकी की हिम्मत नहीं पङी होगी ।
मनोज जैसे सब कुछ समझ गया ।
- एक बात बताओ भाभी ! मनोज हैरानी से बोला - ऐसी जबरदस्त लङकी, मतलब तुम, मनचले लफ़ंगों से किस तरह बची रही, और खुद तुम कभी किसी से प्यार नहीं कर पायीं । ऐसा कैसे सम्भव हो सका ?
पदमा ने एक गहरी सांस ली, जैसे किसी ने उसकी दुखती रग को छेङ दिया हो ।
- क्या बोलूँ मैं । वह माथे पर हाथ रख कर बोली - पहले बताया तो था । उसकी वजह से तो ये पूरा झमेला बना है, वरना आज कहानी कुछ और ही होती, फ़िर उसे या मुझे रोज नयी नयी कहानी क्यों लिखनी होती । अजीब पागल था, मुझ साक्षात रूप की रानी में उसकी कोई दिलचस्पी ही न थी, अदृश्य रूहों के चक्करों में ही पङा रहता था  ..जतिन ! तुमने ऐसा क्यों किया, मेरा रूप यौवन एक बार तो देखा होता ।..अब मैं क्या करती । वो फ़िर साधु हो गया ।
- ले लेकिन । वह बोला - किसी एक के न होने से क्या होता है । बहुत से सुन्दर तन्दुरुस्त छोरे आपके आगे पीछे घूमते ।
- मनोज ! वह सामान्य स्वर में बोली - तुम किसी लङकी का दिल नहीं समझ सकते । कोई भी लङकी अपने पहले प्यार को कभी नहीं भूलती । और खास उसका तिरस्कार कर, उपेक्षा करने वाले प्रेमी के लिये, फ़िर उसकी एक जिद सी बन जाती है । तब मेरी भी ये जिद बन गयी, कि मैं उसे अपना प्यार मानने पर मजबूर कर दूँगी । पर करती तो तब न, जब वह सामान्य आदमी रहता । वह तो साधु ही बन गया । तब बताओ, मैं क्या करती, साधुओं के आगे पीछे घूमती क्या । फ़िर भी वो मेरे दिल से आज तक नहीं निकला ।
कैसी अजीब उलझन थी ।
अगर नितिन इसको कोई केस मानता, कोई अशरीरी रूह प्रयोग मानता, तो फ़िर उसकी शुरूआत भी नहीं हुयी थी ।
देवर भाभी सम्बन्ध पर मनोवैज्ञानिक मामला मानता, तो भी बात ठीक ठीक समझ में नहीं आ रही थी । उसे अब तक यही लगा था, कि एक भरपूर सुन्दर और जवान युवती देवर में अपने वांछित प्रेमी को खोज रही है । अब कोई आम देवर होता, तो उसने देवर दूसरा वर का सिद्धांत सत्य कर दिया होता ।
लेकिन मामला कुछ ऐसा था, कि भाभी डाल डाल तो देवर पात पात । 
एक बात और भी थी ।
ये भाभी देवर की ‘लोलिता’ जैसी कामकथा होती, तो भी वह उसे उसके हाल पर छोङकर कब का चला गया होता । पर उसका अजीबोगरीब व्यवहार, उसके पास रहती काली छाया, उसका एड्रेस बताने का अजीब स्टायल । वह इनमें आपस में कोई मिलान नहीं कर पा रहा था, और सबसे बङी समस्या ये थी कि मनोज  शायद किसी सहायता का इच्छुक ही न था । वह किसी प्रेतबाधा को लेकर परेशान था भी या नहीं, तय करना मुश्किल था । उससे सीधे सीधे कुछ पूछा नहीं जा सकता था, और जब वह खुद बोलता, तो भाभीपुराण शुरू कर देता ।
यहाँ तक कि नितिन की इच्छा अपने बाल नोचने की होने लगी । या तो ये लङका खुद पागल था, या उसे पागल करने वाला था ।
उसने एक नजर फ़िर उस काली छाया पर डाली । वो भी बङी शान्ति से किसी जासूस की तरह बस उनकी बातें ही सुन रही थी ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।