रविवार, अप्रैल 01, 2012

कामवासना 13


सुबह छह बजे से कुछ पहले ही पदमा उठी ।
अनुराग अभी भी सोया पङा था । मनोज हमेशा की तरह खुली छत पर निकल गया था, और कच्छा पहने कसरत कर रहा था ।
नित्य निवृत होकर उसने अपने हर समय ही खिले खिले मुँह पर अंजुली से पानी के छींटे मारे, तो वे खूबसूरत गुलाब पर ओस की बूँदों से बने मोतियों के समान चमक उठे । वह अभी भी रात वाला झिंगोला ही पहने थी ।
उसने चाय तैयार की, और कमरे में अनुराग के पास आ गयी, पर उसकी सुबह अभी भी नहीं हुयी थी ।
उसकी सुबह शायद कभी होती ही न थी ।
एक भरपूर मीठी लम्बी नींद के बाद उत्पन्न स्वतः उर्जा और नवस्फ़ूर्ति का उसमें अभाव सा ही था ।
वह एक थका हुआ इंसान था । जो गधे घोङे की तरह जिन्दगी का बोझा ढो रहा था । वे दोनों पास पास लेटते थे, पर इस पास होने से शायद दूर होना बहुत अच्छा था, तब दिल को सबर तो हो सकता था ।
कल रात वह बेकल हो रही थी ।
घङी टिकटिक करती हुयी ग्यारह अंक को स्पर्श करने वाली थी ।
ग्यारह ! यानी एक और एक । एक पदमा, एक अनुराग, पर क्या इसमें कोई अनुराग था ?
वह एक उमगती स्त्री, और वह एक अलसाया बुझा बुझा पुरुष ।
वह हल्का हल्का सा नींद में था ।
घङी की छोटी सुई चौवन मिनट पर थी, और बङी सुई पैंतालीस मिनट पर, सेकेण्ड की सुई बैचेन सी चक्कर लगा रही थी ।
हर सेकेण्ड के साथ उसकी  बैचेनी भी बढ़ती जा रही थी ।
वह उससे सटती हुयी उसके सीने पर हाथ फ़ेरने लगी ।
- शऽ शी ऐऽ..सुनो । वह फ़ुसफ़ुसाई ।
उसने हूँ हाँ करते हुये करवट बदली, और पलट कर सो गया - बहुत थका हूँ.. पद..मा सोने.. दे ।
वह तङप कर रह गयी । उसने उदास नजर से घङी को देखा ।
छोटी सुई हल्का सा और सरक गयी थी, और बङी सुई उसके ऊपर आने लगी थी ।
फ़िर बङी सुई ने छोटी को दबा लिया, और छोटी सुई मिट सी गयी । सेकेण्ड की सुई खुशी से गोल गोल घूमने लगी ।
टिकटिक .. प्यास ....अतृप्त ।
कितना मधुरता और आनन्द से भरा जीवन है, बारह घण्टे में बारह बार मधुर मिलन ।
टिकटिक .. प्यास .. तृप्त....अतृप्त ..अतृप्त
- अब उठो न । वह उसे झिंझोङती हुयी पूर्ण मधुरता से बोली - जागो मोहन प्यारे, कब तुम्हारी सुबह होगी, कब तुम जागोगे । देखो चिङियाँ चहकने लगी, कलियाँ खिलने लगी ।
वह हङबङाकर उठ गया । उसकी आँखों के सामने सौन्दर्य की साक्षात देवी थी ।
उसकी बङी बङी काली आँखें अनोखी आभा से चमक रही थी । पतली पतली काली लटें उसके सुन्दर चेहरे को चूम रही थी, खन खन बजती हुयी चूङियाँ संगीत के सुर छेङ रही थी । उसके पतले पतले सुर्ख रसीले होठों में एक प्यास सी मचल रही थी ।
- इस तरह.. क्या देख रहे हो ? वह फ़ुसफ़ुसा कर उसको चाय देती हुयी बोली - मैं पदमा हूँ, तुम्हारी बीबी ।
वह जैसे मोहिनी सम्मोहन से बाहर आया, और बोला - सारी यार ! बङा थक जाता हूँ । कभी कभी..मैं महसूस करता हूँ, तुम्हें समय नहीं दे पाता ।
- मैं.. जानती.. हूँ । वह घुंघरुओं की झंकार जैसे मधुर स्वर में बोली - लेकिन मुझे शिकायत नहीं । बाद में ..ऐसा हो ही जाता है..सभी पुरुष..ऐसा ही तो करते हैं..फ़िर उसको सोचना कैसा, है न ।


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।