सोमवार, अप्रैल 05, 2010

दोंनों जूते एक ही पैर के हैं भाई..??

श्री महाराज जी के प्रवचन से...
एक आदमी की जूतों की दुकान थी .उसकी दुकान पर एक
नौकर काम करता था . एक बार जब वह आदमी नहीं था .
नौकर ने एक जोङी जूते बेच दिये .कुछ देर बाद दुकान का
मालिक आया और अपने पीछे हुयी बिक्री के बारे में पूछा
नौकर ने कहा कि एक जोङी जूता बिका है .चार सौ रुपये
का जूता था परन्तु ग्राहक दोसो रुपये दे गया और दोसो रुपये उधार कर गया है . मालिक ने कहा कि तुम उसे जानते हो .इस पर नौकर ने कहा कि नहीं मैं नहीं जानता .तब मालिक ने कहा क्या पता वो शेष रुपये देने आये या ना आये . इस पर नौकर ने बेहद विश्वास से कहा कि रुपये देने वह जरूर आयेगा . तब मालिक ने कहा कि ये बात तुम इतने विश्वास से कैसे कह सकते हो . नौकर ने रहस्यमय मुस्कान के साथ कहा क्योंकि मैंने उसको दोंनों जूते एक ही पैर के बांध दिये है..
आप लोग सोच रहें होंगे कि इस कहानी का अध्यात्म से क्या सम्बन्ध है . विचार करें प्रत्येक इंसान का इससे बेहद गहरा सम्बन्ध है . जब तुम परमात्मा से बिछुङे थे तो उसे भलीभांति मालूम था कि तुम वासना की मायारूपी भूलभुलैया में अपना सब कुछ गंवा दोगे और भले ही दीन हीन की जिन्दगी बसर करो लेकिन फ़िर भी अपने आप पर गर्वित होते रहोगे और यहाँ तक कि अपनी वास्तविक पहचान ही भुला दोगे इसलिये उस परम पिता ने तुम्हें सुख (भौतिक ) तो दिया लेकिन शांति नहीं दी .
आज भले ही कोई धन कुबेर के समान हो अथवा रंक हो शांति के मामले में दोंनों का ही खाता जीरो बैलेंस में है .आप दुनिया का कोई भी एक आदमी ले आयें जो ये कह दे कि वह शांति काअनुभव करता है . हाँ कुछ लोग जो अभी धन दौलत स्त्री पुत्र बंगला कोठी मान सम्मान में सुख महसूस करते हैं और व्यस्तता में बेसुध हैं उनके लिये शांति का कोई अर्थ नहीं है पर जो इनसे ऊपर जा चुके हैं उनसे पूछिये कि आप को सब कुछ पा लेने के बाद शांति मिली या नहीं ..ये बात उसी तरह से है कि एक आदमी को रास्ते में पत्थर से ठोकर लग गयी तो आवश्यक नहीं कि दूसरा भी ठोकर खाकर ही सचेत हो . अगर तुम्हें लगता है कि भविष्य में तुम ऐसा कर लोगे वैसा कर लोगे तो इसका सबसे अच्छा तरीका ये है कि उस स्थिति से गुजर चुके बहुत लोग तुम्हारे आसपास ही होंगे तुम उनके अनुभव का फ़ायदा ले सकते हो जीवित और सफ़ल लोंगो के अनुभव तुम्हे बतायेंगे कि जिस के पीछे तुम भाग रहे हो वहाँ एक जादुई माया के अतिरिक्त कुछ नहीं है मृग मरीचिका की स्थिति में शांति की तलाश व्यर्थ है .अगर शांति की प्यास है तो शांति को पाकर ही दूर होगी .
ये शांति तुम्हें अपने घर जाकर ही प्राप्त होगी . जिस प्रकार कि हम किसी के घर जाते हैं और कितनी ही अच्छी हमारी खुशामद हो पर हम अशांति और बेगानापन महसूस करते है और अपने घर आकर हम अच्छा महसूस करते हैं इसलिये ये आत्मा जहाँ से बिछुङा है जब तक वहाँ पहुँच न जाय ये शांति नहीं पा सकता . यही एक पाँव
का जूता है . सभी रसायन हम करी नहि नाम सम कोय.. रंचक घट में संचरे सब तन कंचन होय
नाम नाम सब कहत है नाम न पाया कोय..नाम न पाया कोय नाम की गति है न्यारी..वही सकस को मिले जिन्होने आसा मारी
एक दिल लाखों तमन्ना ,उस पे और ज्यादा हविस ..फ़िर ठिकाना है कहाँ उसके ठिकाने के लिये ??

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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।