
शून्य में हँस का जनम हुआ है जिस प्रकार आकाश में वायु की संभावना है तथा शरीर में जो परावाणी स्वतः अपना कार्य स्वांस को चलाने का कर रही है उसी प्रकार से बाहर जिह्वा के द्वारा बल देने पर वाक्य पैदा हो जाते है यानी शरीर के बाहर शून्य व्यापक ब्रह्म सर्वत्र समाया हुआ है . उससे ही शरीर में प्रवेश होने से " सो " तथा फ़ेंकने पर " हंग " शब्द उत्पन्न होते हैं . कहने का तात्पर्य यह है कि शून्य से ही स्वांसा " हँसो "का उच्चारण कर रही है . शून्य आकाश से प्राण में " हँस हँस " इस मन्त्र का उच्चारण करती हुयी स्वांस में बहती है . इस प्रकार से प्राणायाम का अभ्यास करने वाला पुरुष रात दिन स्वांस प्रश्वांस के साथ 21600 जप सर्वदा करता है .
सत्संग का आशय परमात्मा के संग से है चाहे वह परमात्मा की वाक द्वारा विवेचना करने में या समाधि द्वारा साक्षात्कार करने को ही सत्संग कहा जाता है . वह नाम या रूप के प्रसंग से परिपूर्ण हो यानी परमात्मा का निर्णय किसी भी भाव से किया जाय वह सत्संग ही है .ग्यानी पुरुष को चाहिये कि वह साधक की बुद्धि के आधार पर ही उसके मनन चिन्तन
निदिध्यासन की उपेक्षा करे क्योंकि जीव में अलग अलग निष्ठा होती है .भावनात्मक साधना को करता है और प्रतीक उपासना को ग्रहण करता है .साधना करने वाले की बुद्धि परीक्षा करके उसे वैसे ही परमात्मा का उपदेश
करना चाहिये . बुद्धि मल विक्षेप आवरण से ढकी होती है जब यह आवरण हट जाते हैं तो परमात्मा में स्वतः निष्ठा हो जाती है .
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें