सोमवार, सितंबर 19, 2011

तांत्रिक का बदला 2



कामाक्षा मन्दिर अजीब स्टायल में बना था ।
एक बेहद ऊँची पहाङी के ठीक पीछे उसकी तलहटी में बना ये मन्दिर हर दृष्टि से अजीब था । मन्दिर की सबसे ऊपरी तिमंजिला छत और पहाङी की चोटी लगभग बराबर थी । वह पहाङी घूमकर मन्दिर से इस तरह सटी हुयी थी कि मन्दिर की इस छत से सीधा पहाङी पर जा सकते थे ।
पहाङी के बाद लगभग एक किमी तक छोटी बङी अन्य पहाङियों का सिलसिला था, और उनके बीच में कई तरह के जंगली वृक्ष झाङियाँ आदि किसी छोटे जंगल के समान उगे हुये थे । इस छोटे से पहाङी जंगल के बाद बायपास रोड था, जिस पर चौबीसों घन्टे वाहनों का आना जाना रहता था ।
मन्दिर के बैक साइड में कुछ ही दूर चलकर यमुना नदी थी । यहाँ यमुना का पाट लगभग तीन सौ मीटर चौङा हो गया था, और गहराई बहुत ज्यादा ही थी । यमुना पार करके कुछ दूर तक खेतों का सिलसिला था । फ़िर एक बङा मैदान और लम्बी चौङी ऊसर जमीन थी । इसी ऊसर जमीन पर बहुत पुराना शमशान था, और इसके बाद शालिमपुर नाम का गाँव था ।
वह उठकर टहलने लगा ।
उसने एक सिगरेट सुलगाई, और हल्का सा कश लिया । मगर तेज बुखार में वह सिगरेट उसे एकदम बेकार बेमजा सी लगी । उसने सिगरेट को पहाङी की तरफ़ उछाल दिया, और यमुना के पार दृष्टि दौङाई । दूर शालिमपुर गाँव में जगह जगह जलते बल्ब किसी जुगनू की भांति टिमटिमा रहे थे ।
शमशान में किसी की चिता जल रही थी ।
चिता..इंसान को सभी चिन्ताओं से मुक्त कर देने वाली चिता ।
एक दिन उसकी भी चिता जल जाने वाली थी, और तब वह जीता जागता चलता फ़िरता माटी का पुतला फ़िर से माटी में मिल जाने वाला था ।
क्या इस जीवन की कहानी बस इतनी ही है?
किसी फ़िल्मी परदे पर चलती फ़िल्म ।
शो शुरू, फ़िल्म शुरू । शो खत्म, फ़िल्म खत्म ।
वह पिछले आठ दिनों से कामाक्षा में रुका हुआ था, और शायद बेमकसद ही यहाँ आया था । अब तो उसे लगने लगा था कि उसकी जिन्दगी ही बेमकसद थी ।
क्या मकसद है इस जिन्दगी का?
‘ओमियो तारा’ की कैद में बिताये जीवन के दिनों ने उसकी सोच ही बदल दी थी ।
और तब उसे लगा था कि शायद सब कुछ बेकार ही है, सब कुछ । सत्य शायद कुछ भी नहीं है, और कहीं भी नहीं है ।
वह तीन आसमान तक पहुँच रखने वाला योगी था ।
हजारों लोकों में स्वेच्छा से आता जाता था । पर इससे उसे क्या हासिल हुआ था, कुछ भी तो नहीं । ये ठीक ऐसा ही था, जैसे प्रथ्वी के धनकुबेर अपने निजी जेट विमानों से कुछ ही देर में प्रथ्वी के किसी भी स्थान पर पहुँच जाते थे ।
लेकिन उससे क्या था । प्रथ्वी वही थी, सब कुछ वही था ।
फ़िर सत्य कहाँ था, सत्य कहाँ है?
वह तमाम लोकों में गया ।
सब जगह, सब कुछ, यही तो था ।
वही सूक्ष्म स्त्री पुरुष, वही कामवासना, वैसा ही जीवन, सब कुछ वैसा ही ।
क्या फ़र्क पङना था, अगर अपनी कुछ योग उपलब्धियों के बाद वह इनमें से किसी लोक का वासी हो जाता, और लम्बे समय के लिये हो जाता ।
मगर अभी तलाश पूरी कहाँ हुयी थी ।
वह तलाश, जिसके लिये उसने अपना जीवन ही दाव पर लगाया था ।
सत्य की खोज, आखिर सत्य क्या है?


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बहुचर्चित एवं अति लोकप्रिय लेखक राजीव श्रेष्ठ यौगिक साधनाओं में वर्षों से एक जाना पहचाना नाम है। उनके सभी कथानक कल्पना के बजाय यथार्थ और अनुभव के धरातल पर रचे गये हैं। राजीव श्रेष्ठ पिछले पच्चीस वर्षों में योग, साधना और तन्त्र मन्त्र आदि से सम्बन्धित समस्याओं में हजारों लोगों का मार्गदर्शन कर चुके हैं।